पूर्ण ब्रह्मः गीता प्रमाण

  परम अक्षर पुरूष पूर्ण ब्रह्म परमपिता परमात्मा
(क्षर पुरूष ब्रह्म काल निरंजन तथा अक्षर पुरूष परब्रह्म से भी परे) 
 परम सर्वोच्च परम सत्ता


तम्एवशरणम्गच्छसर्वभावेनभारत,
तत्प्रसादात्पराम्शान्तिम्स्थानम्प्राप्स्यसिशाश्वतम् ।।18.62।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत! तू (सर्वभावेन) सब प्रकारसे (तम्) उस परमेश्वरकी (एव) ही (शरणम्) शरणमें (गच्छ) जा। (तत्प्रसादात्) उस परमात्माकी कृपा से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्तिको तथा (शाश्वतम्) सदा रहने वाला सत (स्थानम्) स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सत्लोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा। (18.62)

सर्वधर्मान्परित्यज्यमाम्एकम्शरणम्व्रज,
अहम्त्वासर्वपापेभ्यःमोक्षयिष्यामिमाशुचः ।।18.66।।
अनुवाद: गीता श्लोक 18.62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 18.66 में भी उसी के विषय में कहा है कि (माम्) मेरी (सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओंको (माम्) मुझ में (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल (एकम्) एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा। (अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापोंसे (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर। (18.66)

ततःपदम्तत्परिमार्गितव्यम्यस्मिन्गताःनिवर्तन्तिभूयः,
तम्एव्आद्यम्पुरुषम्प्रपद्येयतःप्रवृत्तिःप्रसृतापुराणी ।।15.4।।
अनुवाद: {जब गीता अध्याय 4 श्लोक 34 अध्याय 15 श्लोक 1 में वर्णित तत्वदर्शी संत मिल जाए} (ततः) इसके पश्चात् (तत्) उस परमेश्वर के (पदम्) परम पद अर्थात् सतलोक को (परिमार्गितव्यम्) भलीभाँति खोजना चाहिए (यस्मिन्) जिसमें (गताः) गये हुए साधक (भूयः) फिर (निवर्तन्ति) लौटकर संसारमें नहीं आते (च) और (यतः) जिस परम अक्षर ब्रह्म से (पुराणी) आदि (प्रवृत्तिः) रचना-सृष्टि (प्रसृता) उत्पन्न हुई है (तम्) उस (आद्यम्)सनातन (पुरुषम्) पूर्ण परमात्मा की (एव) ही (प्रपद्ये) मैं शरण में हूँ। पूर्ण निश्चय के साथ उसी परमात्मा का भजन करना चाहिए। (15.4)

ज्ञेयम्यत्तत्प्रवक्ष्यामियत्ज्ञात्वाअमृतम्अश्नुते।
अनादिमत्परम्ब्रह्मसत्तत्असत्उच्यते ।।13.12।।
अनुवाद: (यत्) जो (ज्ञेयम्) जानने योग्य है तथा (यत्) जिसको (ज्ञात्वा) जानकर मनुष्य (अमृतम्) परमानन्दको (अश्नुते) प्राप्त हेाता है (तत्) उसको (प्रवक्ष्यामि) भलीभाँति कहूँगा। (तत्) वह (अनादिमत्) अनादिवाला (परम्) परम (ब्रह्म) ब्रह्म (न) न (सत्) सत् ही (उच्यते) कहा जाता है (न) न (असत्) असत् ही। (13.12)

असतःविद्यतेभावःअभावःविद्यतेसतः,
उभयोःअपिदृष्टःअन्तःतुअनयोःतत्त्वदर्शिभिः ।।2.16।।
अनुवाद: (असतः) असत् वस्तु की तो (भावः) सत्ता (न) नहीं (विद्यते) जानी जाती (तु) और (सतः) सत्का (अभावः) अभाव (न) नहीं (विद्यते) जाना जाता इस प्रकार (अनयोः) इन (उभयोः) दोनों की (अपि) भी (अन्तः) तत्ववास्तविकता को (तत्त्वदर्शिभिः) तत्वज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी संतों द्वारा (दृष्टः) देखा गया है (इसी का प्रमाण गीता अध्याय 4 श्लोक 34 में है)। (2.16)

तत्विद्धिप्रणिपातेनपरिप्रश्नेनसेवया,
उपदेक्ष्यन्तितेज्ञानम्ज्ञानिनःतत्त्वदर्शिनः ।।4.34।।
अनुवाद: पवित्र गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि उपरोक्त नाना प्रकार की साधना तो मनमाना आचरण है। मेरे तक की साधना की अटकल लगाया ज्ञान हैपरन्तु पूर्ण परमात्मा के पूर्ण मोक्ष मार्ग का मुझे भी ज्ञान नहीं है। उसके लिए इस मंत्र 4.34 में कहा है कि उस (तत्) तत्वज्ञान को (विद्धि) समझ उन पूर्ण परमात्मा के वास्तविक ज्ञान व समाधान को जानने वाले संतोंको (प्रणिपातेन) भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी (सेवया) सेवा करनेसे और कपट छोड़कर (परिप्रश्नेन) सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे (ते) वे (तत्वदर्शिनः) पूर्ण ब्रह्म को तत्व से जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी (ज्ञानिनः) ज्ञानी महात्मा तुझे उस (ज्ञानम्) तत्वज्ञानका (उपदेक्ष्यन्ति) उपदेश करेंगे। (4.34)

यत्ज्ञात्वापुनःमोहम्एवम्यास्यसिपाण्डव,
येनभूतानिअशेषेणद्रक्ष्यसिआत्मनिअथोमयि ।।4.35।।
अनुवाद: (यत्) जिस तत्व ज्ञान को (ज्ञात्वा) जानकर (पुनः) फिर तू (एवम्) इस प्रकार (मोहम्) मोहको (न) नहीं (यास्यसि) प्राप्त होगा तथा (पाण्डव) हे अर्जुन! (येन) जिस ज्ञानके द्वारा तू (भूतानि) प्राणियोंको (अशेषेण) पूर्ण रूपसे (आत्मनि) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है उस पूर्ण परमात्मा में (अथो) और पीछे (मयि) मुझे (द्रक्ष्यसि) देखेगा कि मैं काल हूँ यह जान जाएगा। (4.35)


कालःअस्मिलोकक्षयकृत्प्रवृद्धःलोकान्समाहर्तुम्इहप्रवृत्तः,
ऋतेअपित्वाम्भविष्यन्तिसर्वेयेअवस्थिताःप्रत्यनीकेषुयोधाः ।।11.32।।
अनुवाद: (लोकक्षयकृत्) लोकों का नाश करनेवाला (प्रवृद्धः) बढ़ा हुआ (कालः) काल (अस्मि) हूँ। (इह) इस समय (लोकान्) इन लोकोंको (समाहर्तुम्) नष्ट करने के लिये (प्रवृत्तः) प्रकट हुआ हूँ इसलिये (ये) जो (प्रत्यनीकेषु) प्रतिपक्षियोंकी सेनामें (अवस्थिताः) स्थित (योधाः) योद्धा लोग हैं, (ते) वे (सर्वे) सब (त्वाम्) तेरे (ऋते) बिना (अपि) भी (न) नहीं (भविष्यन्ति) रहेंगे अर्थात् तेरे युद्ध न करनेसे भी इन सबका नाश हो जायेगा। (11.32)

अपिचेत्असिपापेभ्यःसर्वेभ्यःपापकृत्तमः,
सर्वम्ज्ञानप्लवेनएववृजिनम्सन्तरिष्यसि ।।4.36।।
अनुवाद: (चेत्) यदि तू अन्य (सर्वेभ्यः) सब (पापेभ्यः) पापियोंसे (अपि) भी (पापकृत्तमः) अधिक पाप करनेवाला (असि) है तो भी तू (ज्ञानप्लवेन) तत्वज्ञान के आधार पर वास्तविक नाम रूपी नौकाद्वारा (सर्वम्) सर्वस जानकर (वृजिनम्) अज्ञान से पार जाकर (एव) निःसन्देह (सन्तरिष्यसि) पूर्ण तरह तर जायेगा अर्थात् पाप रहित होकर पूर्ण मुक्त हो जायेगा। (4.36)

यथाएधांसिसमिद्धःअग्निःभस्मसात्कुरुतेअर्जुन,
ज्ञानाग्निःसर्वकर्माणिभस्मसात्कुरुतेतथा ।।4.37।।
अनुवाद: (अर्जुन) हे अर्जुन! (यथा) जैसे (समिद्धः) प्रज्वलित (अग्निः) अग्नि (एधांसि) ईंधनोंको (भस्मसात्) भस्ममय (कुरुते) कर देता है (तथा) वैसे ही (ज्ञानाग्निः) तत्वज्ञानरूप अग्नि (सर्वकर्माणि) सम्पूर्ण अविधिवत् कर्मोंको (भस्मसात्) भस्ममय (कुरुते) कर देता है। (4.37)

हिज्ञानेनसदृशम्पवित्राम्इहविद्यते,
तत् स्वयम्योगसंसिद्धःकालेनआत्मनिविन्दति ।।4.38।।
अनुवाद: (इह) इस संसारमें (ज्ञानेन) तत्व ज्ञानके (सदृशम्) समान (पवित्राम्) पवित्र करनेवाला (हि) निःसन्देह कुछ भी (न) नहीं (विद्यते) जान पड़ता (योगसंसिद्धः) उस तत्वदर्शी संत के द्वारा दिए सत भक्ति मार्ग के द्वारा जिसकी भक्ति कमाई पूर्ण हो चुकी है (कालेन) समय अनुसार (तत् आत्मनि) आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले उस पूर्ण परमात्मा को (स्वयम्) अपने आप ही (विन्दति) प्राप्त कर लेता है। (4.38)

श्रद्धावान्लभतेज्ञानम्तत्परःसंयतेन्द्रियः,
ज्ञानम्लब्ध्वापराम्शान्तिम्अचिरेणअधिगच्छति ।।4.39।।
अनुवाद: (संयतेन्द्रियः) जितेन्द्रिय (तत्परः) उस तत्वदर्शी संत द्वारा प्राप्त साधन के साधनपरायण (श्रद्धावान्) श्रद्धावान् मनुष्य भक्ति की उपलब्धि होने पर पूर्ण परमेश्वर के (ज्ञानम्) तत्वज्ञानको (लभते) प्राप्त होता है तथा (ज्ञानम्) तत्वज्ञानको (लब्ध्वा) प्राप्त होकर वह (अचिरेण) बिना विलम्बके तत्काल ही भगवत्प्राप्तिरूप (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्तिको (अधिगच्छति) प्राप्त हो जाता है(4.39)

सर्वतः पाणिपादम्तत्सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्।
सर्वतःश्रुतिमत्लोकेसर्वम्आवृत्यतिष्ठति ।।13.13।।
अनुवाद: (तत्) वह पूर्ण परमेश्वर (सर्वतःपाणिपादम्) सब ओर हाथ-पैरवाला (सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम्) सब ओर नेत्र, सिर और मुखवाला तथा (सर्वतःश्रुतिमत्) सब ओर कानवाला है। क्योंकि वह (लोके)संसारमें (सर्वम्) सबको (आवृत्य) व्याप्त करके (तिष्ठति) स्थित है। (13.13)

सर्वेन्द्रियगुणाभासम्सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तम्सर्वभृत्एवनिर्गुणम्गुणभोक्तृच।।13.14।।
अनुवाद: (सर्वेन्द्रियगुणाभासम्) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला है परंतु वास्तवमें (सर्वेन्द्रियविवर्जितम्) सब इन्द्रियोंसे रहित है (च) तथा (असक्तम्) आसक्तिरहित होनेपर (एव) भी (सर्वभृत्) सबका धारण-पोषण करनेवाला (च) और (निर्गुणम्) निर्गुण होनेपर भी (गुणभोक्तृ) गुणोंको भोगनेवाला है। (13.14)

बहिःअन्तःभूतानाम्अचरम्चरम्एवच।
सूक्ष्मत्वात्तत्अविज्ञेयम्दूरस्थम्अन्तिकेतत् ।।13.15।।
अनुवाद: (भूतानाम्) चराचर सब भूतोंके (बहिः अन्तः) बाहर-भीतर परिपूर्ण है (च) और (चरम् अचरम्) चर-अचररूप (एव) भी वही है (च) और (तत्) वह (सूक्ष्मत्वात्) सूक्ष्म होनेसे (अविज्ञेयम्) अविज्ञेय है अर्थात् जिसकी सही स्थिति न जानी जाए। (च) तथा (अन्तिके) अति समीपमें (च) और (दूरस्थम्) दूरमें भी स्थित (तत्) वही है। (13.15)

अविभक्तम्भूतेषुविभक्तम्इवस्थितम्।
भूतभर्तृतत्ज्ञेयम्ग्रसिष्णुप्रभविष्णुच ।।13.16।।
अनुवाद: (अविभक्तम्) विभागरहित होनेपर (च) भी (भूतेषु) प्राणियों में (विभक्तम् इव) विभक्त-सा (स्थितम्) स्थित है (च) तथा (तत्) वह (ज्ञेयम्) जाननेयोग्य परमात्मा (भूतभर्तृ) विष्णुरूपसे भूतों को धारण-पोषण करनेवाला (च) और (ग्रसिष्णु) संहार करनेवाला (च) तथा (प्रभविष्णु) सबको उत्पन्न करनेवाला है। (13.16)

ज्योतिषाम्अपितत्ज्योतिःतमसःपरम्उच्यते।
ज्ञानम्ज्ञेयम्ज्ञानगम्यम्हृदिसर्वस्यविष्ठितम् ।।13.17।।
अनुवाद: (तत्) वह पूर्णब्रह्म (ज्योतिषाम्) ज्योतियोंका (अपि) भी (ज्योतिः) ज्योति एवं (तमसः) मायाधारी काल से (परम्) अन्य (उच्यते) कहा जाता है वह परमात्मा (ज्ञानम्) बोधस्वरूप (ज्ञेयम्) जाननेके योग्य एवं (ज्ञानगम्यम्) तत्त्वज्ञान से प्राप्त करने योग्य है और (सर्वस्य)सबके(हृदि)हृदयमें (विष्ठितम्)विशेषरूपसे स्थित है। (13.17)

उपद्रष्टाअनुमन्ताभर्ताभोक्तामहेश्वरः।
परमात्माइतिअपिउक्तःदेहेअस्मिन्पुरुषःपरः ।।13.22।।
अनुवाद: (अस्मिन्) इस (देहे अपि) देहमें भी स्थित (पुरुषः) यह सतपुरुष अर्थात् पूर्ण ब्रह्म वास्तव में (परः) सर्वोपरि प्रभु तो गीता ज्ञान दाता से दूसरा अर्थात् अन्य ही है। वही (उपद्रष्टा) साक्षी होनेसे उपद्रष्टा (च) और (अनुमन्ता) यथार्थ सम्ति देनेवाला होनेसे अनुमन्ता (भर्ता) सबका धारण-पोषण करनेवाला होनेसे भर्ता (भोक्ता) जीवात्मा को भोग भोगवाने के कारण भोक्ता, (महेश्वरः) ब्रह्म व परब्रह्म आदिका भी स्वामी होनेसे महेश्वर (च) और (परमात्मा) परमात्मा (इति) ऐसा (उक्तः) कहा गया है। (13.22)

यःएवम्वेत्तिपुरुषम्प्रकृतिम्गुणैःसह,
सर्वथावर्तमानःअपिसःभूयःअभिजायते ।।13.23।।
अनुवाद: (एवम्) इस प्रकार (पुरुषम्) सतपुरुषको (च) और (गुणैः) गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मसतगुण विष्णु तथा तमगुण शिव जी के (सह) सहित (प्रकृतिम्) माया अर्थात् दुर्गा को (यः) जो (वेत्ति) तत्त्वसे जानता है (सः) वह (सर्वथा) सब प्रकारसे (वर्तमानः) वर्तमान में शास्त्र विरुद्ध भक्ति साधना से मुड़ जाता है अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मों को वर्तमान में ही करता हुआ (अपि) भी (भूयः) फिर (न) नहीं (अभिजायते) जन्मता। (13.23)


ध्यानेनआत्मनिपश्यन्तिकेचित्आत्मानम्आत्मना।
अन्येसाङ्ख्येनयोगेनकर्मयोगेनअपरे ।।13.24।।
अनुवाद: (आत्मानम्) परमात्माको (केचित्) कितने ही मनुष्य तो (आत्मना) अपनीदिव्य दृष्टि से (ध्यानेन) ध्यानके द्वारा (आत्मनि) अपने शरीर में अपने अन्तःकरण में (पश्यन्ति) देखते हैं, (अन्ये) अन्य कितने ही (साड्ख्येन योगेन) ज्ञानयोग के द्वारा (च) और (अपरे) दूसरे कितने ही (कर्मयोगेन) कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं। (13.24)

समम्सर्वेषुभूतेषुतिष्ठन्तम्परमेश्वरम्।
विनश्यत्सुअविनश्यन्तम्यःपश्यतिसःपश्यति ।।13.27।।
अनुवाद: (यः) जो (विनश्यत्सु) नष्ट होते हुए (सर्वेषु) सब (भूतेषु) चराचर भूतोंमें (परमेश्वरम्) परमेश्वरको (अविनश्यन्तम्) नाशरहित और (समम्) समभावसे (तिष्ठन्तम्) स्थित (पश्यति)देखता है (सः)वही यथार्थ (पश्यति)देखता है अर्थात् वह पूर्णज्ञानी है। (13.27)

समम्पश्यन्हिसर्वत्रासमवस्थितम्ईश्वरम्।
हिनस्तिआत्मनाआत्मानम्ततःयातिपराम्गतिम् ।।13.28।।
अनुवाद: (हि) क्योंकि (सर्वत्रा) सबमें (समवस्थितम्) सर्वव्यापक (ईश्वरम्) उत्तम पुरूष अर्थात् परमेश्वरको (समम्) समान (पश्यन्) देखता हुआ (आत्मना) अपनेद्वारा (आत्मानम्) अपनेको (न हिनस्ति) नष्ट नहीं करता अर्थात् आत्मघात नहीं करता (ततः) इससे वह (पराम्) परम (गतिम्) गतिको (याति) प्राप्त होता है। (13.28)

यदाभूतपृथग्भावम्एकस्थम्अनुपश्यति।
ततःएवविस्तारम्ब्रह्मसम्पद्यते तदा ।।13.30।।
अनुवाद: (यदा) जब कोई साधक (भूतपृथग्भावम्) प्राणियों के भिन्न-2 भावको (च) तथा (विस्तारम्) विस्तार को (अनुपश्यति) देखता है अर्थात् जान लेता है (तदा) तब वह भक्त (एकस्थम्) एक परमात्मा में स्थित (ततः ब्रह्म) उस पूर्ण परमात्मा को (एव) ही (सम्पद्यते) प्राप्त हो जाता है। (13.30)

अनादित्वात्निर्गुणत्वात्परमात्माअयम्अव्ययः।
शरीरस्थःअपिकौन्तेयकरोतिलिप्यते ।।13.31।।
अनुवाद: (कौन्तेय) हे अर्जुन! (अनादित्वात्) अनादि होनेसे और (निर्गुणत्वात्) उसकी शक्ति निर्गुण होनेसे (अयम्) यह (अव्ययः) अविनाशी (परमात्मा) परमात्मा (शरीरस्थः) शरीरमें रहता हुआ (अपि) भी वास्तवमें (न) न तो (करोति) कुछ करता है और (न) न (लिप्यते) लिप्त ही होता है। (13.31)
भावार्थ - जैसे सूर्य दूरस्थ होने से भी जल के घड़े में दृष्टिगोचर होताहै तथा निर्गुण शक्ति अर्थात् ताप प्रभावित करता रहता हैइसी प्रकार पूर्ण परमात्मा अपने सत्यलोक में रहते हुए भी प्रत्येक आत्मा में प्रतिबिम्ब रूप से रहता है। जैसे अवतल लैंस पर सूर्य की किरणें अधिक ताप पैदा कर देती हैं तथा उत्तल लैंस पर अपना स्वाभाविक प्रभाव ही रखती हैं। इसी प्रकार शास्त्र विधि अनुसार साधक अवतल लैंस बन जाता है। जिससे ईश्वरीय शक्ति का अधिक लाभ प्राप्त करता है तथा शास्त्रा विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वाला साधक केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता है। उसे उत्तल लैंस जानो। (13.31)

क्षेत्राक्षेत्राज्ञयोःएवम्अन्तरम्ज्ञानचक्षुषा।
भूतप्रकृतिमोक्षम्येविदुःयान्तितेपरम् ।।13.34।।
अनुवाद: (एवम्) इस प्रकार (क्षेत्रा) शरीर (च) तथा (क्षेत्राज्ञयो) ब्रह्म काल के (अन्तरम्) भेदको (ये) जो (ज्ञानचक्षुषा) ज्ञान रूपी नेत्रों से अर्थात् तत्वज्ञान से (विदुः) अच्छी तरह जान लेता है, (ते भूत) वे प्राणी (प्रकृति) प्रकृति से अर्थात् काल की छोड़ी हुई शक्ति माया अष्टंगी से (मोक्षम्) मुक्त हो कर (परम्) गीता ज्ञान दाता से दूसरे पूर्ण परमात्माको (यान्ति) प्राप्त होते हैं। {गीता श्लोक 13.1-13.2 में कहा है कि क्षेत्राज्ञ अर्थात् शरीर को जानने वाला क्षेत्राज्ञ कहा जाता है। इसलिए क्षेत्राज्ञ भी मुझे ही जान। इससे सिद्ध हो कि क्षेत्राज्ञ ज्ञान दाता काल अर्थात् ब्रह्म है।} (13.34)

द्वौइमौपुरुषौलोकेक्षरःअक्षरःएव,
क्षरःसर्वाणिभूतानिकूटस्थःअक्षरःउच्यते ।।15.16।।
अनुवाद: (लोके) इस संसारमें (द्वौ) दो प्रकारके (पुरुषौ) भगवान हैं (क्षरः) क्षर पुरूष (च) और (अक्षरः) अक्षर पुरूष (एव) इसी प्रकार (इमौ) इन दोनों लोकों में (सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) भूतप्राणियों के शरीर तो (क्षरः) नाशवान् (च) और (कूटस्थः) जीवात्मा (अक्षरः) अविनाशी (उच्यते) कहा जाता है। (15.16)

उत्तमःपुरुषःतुअन्यःपरमात्माइतिउदाहृतः,
यःलोकत्रायम् आविश्यबिभर्तिअव्ययःईश्वरः ।।15.17।।
अनुवाद: (उत्तमः) उत्तम-सर्वश्रेष्ठ (पुरुषः) भगवान परम अक्षर पुरूष (तु) तो उपरोक्त दोनों प्रभुओं क्षर पुरूष तथा अक्षर पुरुष से (अन्यः) अन्य ही है (यः) जो (लोकत्रायम्) तीनों लोकोंमें (आविश्य) प्रवेश करके (बिभर्ति) सबका धारण पोषण करता है एवं (अव्ययः) अविनाशी (ईश्वरः) परमेश्वर (परमात्मा) परमात्मा (इति) इस प्रकार (उदाहृतः) कहा गया है। (15.17)

सन्नयासःतुमहाबाहोदुःखम्आप्तुम्अयोगतः,
योगयुक्तःमुनिःब्रह्मनचिरेणअधिगच्छति ।।5.6।।
अनुवाद: (महाबाहो) हे अर्जुन! (तु) इसके विपरित (सन्नयास) कर्म सन्यास से तो (अयोगतः) शास्त्र विधि रहित साधना होने के कारण (दुःखम्) दुःख ही (आप्तुम्) प्राप्त होता है तथा (योगयुक्तः) शास्त्र अनुकूल साधना प्राप्त (मुनिः) साधक (ब्रह्म) प्रभु को (नचिरेण) अविलम्ब ही (अधिगच्छति) प्राप्त हो जाता है। (5.6)

ब्रह्मणिआधायकर्माणिसंगम्त्यक्त्वाकरोतियः,
लिप्यतेसःपापेनपद्मपत्राम्इवअम्भसा ।।5.10।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष (कर्माणि) सब कर्मोंको (ब्रह्मणि) पूर्ण परमात्मामें (आधाय) अर्पण करके और (संगम्) आसक्तिको (त्यक्त्वा) त्यागकर शास्त्र विधि अनुसार कर्म (करोति) करता है (सः) वह साधक (अम्भसा) जलसे (पद्मपत्राम्) कमलके पत्ते की (इव) भाँति (पापेन) पापसे (न, लिप्यते) लिप्त नहीं होता अर्थात् पूर्ण परमात्मा की भक्ति से साधक सर्व बन्धनों से मुक्त हो जाता है {जो पाप कर्म के कारण बन्धन बनता है}। (5.10)

सर्वकर्माणिमनसासन्नयस्यआस्तेसुखम्वशी,
नवद्वारेपुरेदेहीएवकुर्वन्कारयन् ।।5.13।।
अनुवाद: (मनसा) मन को तत्वज्ञान के आधार से (वशी) काल लोक के लाभ से हटा कर दृढ़ इच्छा से (सर्व कर्माणि) सम्पूर्ण शास्त्र अनुकूल धार्मिक कर्मों अर्थात् सत्य साधना से (सन्नयस्य) संचित कर्म के आधार से अर्थात् संचय की हुई सत्य भक्ति कमाई के आधार से (सुखम्) वास्तविक आनन्द में अर्थात् पूर्णमोक्ष रूपी परम शान्ति युक्त सत्यलोक में (आस्ते) स्थित होकर निवास करता है (एव) इस प्रकार फिर (देही) शरीरी अर्थात् परमात्मा के साथ अभेद रूप में जीवात्मा (नवद्वारे) पंच भौतिक नौ द्वारों वाले शरीर रूप (पुरे) किले में (न कुर्वन्) न तो कर्म करता हुआ (न कारयन्) न ही कर्म करवाता हुआ अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में ही सुख पूर्वक रहता है। (5.13)

कर्तृत्वम्कर्माणिलोकस्यसृजतिप्रभुः,
कर्मफलसंयोगम्स्वभावःतुप्रवर्तते ।।5.14।।
अनुवाद: (प्रभुः) कुल का स्वामी पूर्ण परमात्मा सर्व प्रथम (लोकस्य) विश्व की (सृजति) रचना करता है तब (न) न तो (कर्तृत्वम्) कर्तापनका (न) न (कर्माणि) कर्मों का आधार होता है (न) न (कर्मफलसंयोगम्) कर्मफलके संयोग ही (तु) इसके विपरीत (स्वभावः) सर्व प्राणियों द्वारा स्वभाव वश किए कर्म का फल ही (प्रवर्तते) बरत रहा है। (5.14)

आदत्तेकस्यचित्पापम्एवसुकृतम्विभुः,
अज्ञानेनआवृतम्ज्ञानम्तेनमुह्यन्तिजन्तवः ।।5.15।।
अनुवाद: (विभुः) पूर्ण परमात्मा (न) न (कस्यचित्) किसीके (पापम्) पाप का (च) और (न) न किसीके (सुकृतम्) शुभकर्मका (एव) ही (आदत्ते) प्रति फल देता है अर्थात् निर्धारित किए नियम अनुसार फल देता है किंतु (अज्ञानेन) अज्ञानके द्वारा (ज्ञानम्) ज्ञान (आवृतम्) ढका हुआ है (तेन) उसीसे (जन्तवः) तत्वज्ञान हीनता के कारण जानवरों तुल्य सब अज्ञानी मनुष्य (मुह्यन्ति) मोहित हो रहे हैं अर्थात् स्वभाववश शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म व सांसारिक कर्म करके क्षणिक सुखों में आसक्त हो रहे हैं। जो साधक शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म करते हैं उनके पाप को प्रभु क्षमा कर देता है अन्यथा संस्कार ही वर्तता है अर्थात् प्राप्त करता है। (5.15)

भावार्थ:- तत्वज्ञान के बिना पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता पूर्ण मोक्ष बिना परम शान्ति नहीं हो सकती इसलिए कहा है कि पूर्ण परमात्मा ने जब सतलोक में सृष्टि रची थी उस समय किसी को कोई कर्म आधार बना कर उत्पत्ति नहीं की थी। सत्यलोक में सुन्दर शरीर दिया था जो कभी विनाश नहीं होता। परन्तु प्रभु ने कर्म फल का विद्यान अवश्य बनाया था। इसलिए सर्व प्राणी अपने स्वभाववश कर्म करके सुख व दुःख के भोगी होते हैं। 

जैसे हम सर्व आत्माऐं सत्यलोक में पूर्ण ब्रह्म परमात्मा(सतपुरुष) द्वारा अपने मध्य से शब्द शक्ति से उत्पन्न किए। वहाँ सत्यलोक में हमें कोई कर्म नहीं करना था तथा सर्व सुख उपलब्ध थे। हम स्वयं अपने स्वभाव वश होकर ज्योति निरंजन (ब्रह्म-काल) पर आसक्त हो कर अपने सुखदाई प्रभु से विमुख हो गए। उसी का परिणाम यह निकला कि अब हम कर्म बन्धन में स्वयं ही बन्ध गए। अब जैसे कर्म करते हैंउसी का फल निर्धारित नियमानुसार ही प्राप्त कर रहे हैं। जो साधक शास्त्र अनुकूल साधना करता है उसके पाप को पूर्ण परमात्मा क्षमा करता है अन्यथा संस्कार ही वर्तता है अर्थात् संस्कार ही प्राप्त करता है।

शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म तथा मर्यादा में रहकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं तथा पूर्ण प्रभु पाप क्षमा कर देता है। इसलिए कर्तव्य कर्म अर्थात् करने योग्य भक्ति व संसारिक कर्म करता हुआ ही पूर्ण मुक्त होता है।

ज्ञानेनतुतत्अज्ञानम्येषाम्नाशितम्आत्मनः,
तेषाम्आदित्यवत्ज्ञानम्प्रकाशयतितत्परम् ।।5.16।।
अनुवाद: (तु) दूसरी ओर (येषाम्) जिनका (अज्ञानम्) अज्ञान (आत्मनः) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा का अभेद साथी है इसलिए आत्मा कहा जाता है उस पूर्ण परमात्मा के (तत् ज्ञानेन) तत्वज्ञान से (नाशितम्) नष्ट हो गया है (तेषाम्) उनका वह (ज्ञानम्) तत्वज्ञान (तत्परम्) उस पूर्ण परमात्मा को (आदित्यवत्) सूर्य के सदृश (प्रकाशयति) प्रकाश कर देता है अर्थात् अज्ञान रूपी अंधेरा हटा देता है। (5.16)

तद्बुद्धयःतदात्मानःतन्निष्ठाःतत्परायणाः,
गच्छन्तिअपुनरावृत्तिम्ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।।5.17।।
अनुवाद: (तदात्मानः) वह तत्वज्ञान युक्त जीवात्मा (तद्बुद्धयः) उस पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान पर पूर्ण रूप से लगी बुद्धि से (तन्निष्ठाः) सर्वव्यापक परमात्मामें ही निरन्तर एकीभावसे स्थित है ऐसे (तत्परायणाः) उस परमात्मा पर आश्रित (ज्ञाननि र्धूतकल्मषाः) तत्वज्ञानके आधार पर शास्त्र विधि रहित साधना करना भी पाप है तथा उससे पुण्य के स्थान पर पाप ही लगता है इसलिए सत्य भक्ति करके पापरहित होकर (अपुनरावृत्त्सिम्) जन्म-मरण से मुक्त होकर संसार में पुर्न लौटकर न आने वाली गति अर्थात् पूर्ण मुक्ति को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं। (5.17)

विद्याविनयसम्पन्नेब्राह्मणेगविहस्तिनि,
शुनिएवश्वपाकेपण्डिताःसमदर्शिनः ।।5.18।।
अनुवाद: (विद्याविनयसम्पन्ने) गुप्त तत्वज्ञान से परिपूर्ण अर्थात् पूर्ण तत्वज्ञानी साधक (ब्राह्मणे) ब्राह्मण में (गवि) गाय में (हस्तिनि) हाथी में (च) तथा (शुनि) कुत्ते (च) और (श्वपाके) चाण्डालमें (समदर्शिनः) एक समान समझता है अर्थात् एक ही भाव रखता है वास्तव में इन लक्षणों से युक्त हैं (पण्डिताः) ज्ञानीजन अर्थात् तत्वज्ञानी (एव) ही है। (5.18)

इहएवतैःजितःसर्गःयेषाम्साम्येस्थितम्मनः,
निर्दोषम्हिसमम्ब्रह्मतस्मात्ब्रह्मणितेस्थिताः ।।5.19।।
अनुवाद: (एव) वास्तव में (येषाम्) जिनका (मनः) मन (साम्ये) समभावमें (स्थितम्) स्थित है (तैः) उनके द्वारा (इह) इस जीवित अवस्थामें (सर्गः) सम्पूर्ण संसार (जितः) जीत लिया गया है अर्थात् वे मनजीत हो गए हैं (हि) निसंदेह वह (निर्दोषम्) पाप रहित साधक (ब्रह्म) परमात्मा (समम्) सम है अर्थात् निर्दोंष आत्मा हो गई हैं (तस्मात्) इससे (ते) वे (ब्रह्मणि) पूर्ण परमात्मामें ही (स्थिताः) स्थित हैं। पाप रहित आत्मा तथा परमात्मा के बहुत से गुण समान है जैसे अविनाशी, रागद्वेष रहितजन्म मृत्यु रहितस्वप्रकाशित भले ही शक्ति में बहुत अन्तर है। (5.19)

प्रहृष्येत्प्रियम्प्राप्यउद्विजेत्प्राप्यअप्रियम्,
स्थिरबुद्धिःअसम्मूढःब्रह्मवित्ब्रह्मणिस्थितः ।।5.20।।
अनुवाद: (प्रियम्) प्रियको (प्राप्य) प्राप्त होकर (न प्रहृष्येत्) हर्षित नहीं हो (च) और (अप्रियम्) अप्रियको (प्राप्य) प्राप्त होकर (न उद्विजेत्) उद्विगन्न न हो वह (स्थिरबुद्धि) स्थिरबुद्धि (असम्मूढः) संशयरहित (ब्रह्मवित्) परमात्म तत्व को पूर्ण रूप से जानने वाले (ब्रह्मणि) पूर्ण परमात्मामें एकीभाव से नित्य (स्थितः) स्थित है। (5.20)

बाह्यस्पर्शेषुअसक्तात्माविन्दतिआत्मनियत्सुखम्,
सःब्रह्मयोगयुक्तात्मासुखम्अक्षयम्अश्नुते।।5.21।।
अनुवाद: (बाह्यस्पर्शेषु) बाहरके विषयोंमें (असक्तात्मा) आसक्तिरहित साधक को (आत्मनि) अपने आप में (यत्) जो सुमरण (सुखम्) आनन्द(विन्दति) प्राप्त होता है (सः) वह (ब्रह्मयोगयुक्तात्मा) परमात्माके अभ्यास योगमें अभिन्नभावसे स्थित भक्त आत्मा (अक्षयम्) कभी समाप्त न होने वाले (सुखम्) आनन्दका (अश्नुते) अनुभव करता है। अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। (5.21)

यःअन्तःसुखःअन्तरारामःतथाअन्तज्र्योतिःएवयः,
सःयोगीब्रह्मनिर्वाणम्ब्रह्मभूतःअधिगच्छति ।।5.24।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष (एव) निश्चय करके (अन्तःसुखः) अन्तःकरण में ही सुखवाला है (अन्तरारामः) पूर्ण परमात्मा जो अन्तर्यामी रूप में आत्मा के साथ है उसी अन्तर्यामी परमात्मा में ही रमण करनेवाला है (तथा) तथा (यः) जो (अन्तज्र्योतिः) अन्तः करण प्रकाश वाला अर्थात् सत्य भक्ति शास्त्रा ज्ञान अनुसार करता हुआ मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता (सः) वह (ब्रह्मभूतः) परमात्मा जैसे गुणों युक्त (योगी) भक्त (ब्रह्मनिर्वाणम्) शान्त ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्माको (अधिगच्छति) प्राप्त होता है। (5.24)

लभन्तेब्रह्मनिर्वाणम्ऋषयःक्षीणकल्मषाः,
छिन्नद्वैधाःयतात्मानःसर्वभूतहितेरताः ।।5.25।।
अनुवाद: (क्षीणकल्मषाः) शास्त्र विधि अनुसार साधना करने से जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, (छिन्नद्वैधाः) जिनके सब संशय निवृत्त हो गये हैं अर्थात् जो पथ भ्रष्ट नहीं हैं (सर्वभूतहिते) जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें (रताः) रत हैं और (यतात्मानः) परमात्मा के प्रयत्न अर्थात् साधना से स्थित हैं वे (ऋषयः) साधु पुरुष (ब्रह्मनिर्वाणम्) शान्त ब्रह्म को अर्थात् पूर्ण परमात्मा को (लभन्ते) प्राप्त होते हैं। (5.25)

कामक्रोधवियुक्तानाम्यतीनाम्यतचेतसाम्,
अभितःब्रह्मनिर्वाणम्वर्ततेविदितात्मनाम् ।।5.26।।
अनुवाद: (कामक्रोधवियुक्तानाम्) काम-क्रोधसे रहित (यतचेतसाम्) प्रभु भक्ति में प्रयत्न शील (विदितात्मनाम्) परमात्माका साक्षात्कार किये हुए (यतीनाम्) परमात्मा आश्रित पुरुषोंके लिये (अभितः) सब ओरसे (ब्रह्मनिर्वाणम्) शान्त ब्रह्म को अर्थात् पूर्णब्रह्म परमात्मा को ही (वर्तते) व्यवहार में लाते हैं अर्थात् केवल एक पूर्ण प्रभु की ही पूजा करते हैं। (5.26)

अन्नात्भवन्तिभूतानिपर्जन्यात्अन्नसम्भवः,
यज्ञात्भवतिपर्जन्यःयज्ञःकर्मसमुद्भवः ।।3.14।।
कर्मब्रह्मोद्भवम्विद्धिब्रह्मअक्षरसमुद्भवम्,
तस्मात्सर्वगतम्ब्रह्मनित्यम्यज्ञेप्रतिष्ठितम् ।।3.15।।
अनुवाद: (भूतानि) प्राणी ( अन्नात्) अन्नसे (भवन्ति) उत्पन्न होते हैं, (अन्नसम्भवः) अन्नकी उत्पत्ति (पर्जन्यात्) वृष्टिसे होती है (पर्जन्यः) वृष्टि (यज्ञात्) यज्ञसे (भवति) होती है और (यज्ञः) यज्ञ (कर्मसमुद्भवः) विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। (कर्म) कर्मको तू (ब्रह्मोद्भवम्) ब्रह्मसे उत्पन्न और (ब्रह्म) ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष को (अक्षरसमुद्भवम्) अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ (विद्धि) जान। (तस्मात्) इससे सिद्ध होता है कि (सर्वगतम्) सर्वव्यापी (ब्रह्म) परमात्मा (नित्यम्) सदा ही (यज्ञे) यज्ञमें (प्रतिष्ठितम्) प्रतिष्ठित है अर्थात् यज्ञों का भोग लगा कर फल दाता भी वही पूर्णब्रह्म है। गुणों के आधार से कर्म लगाकर चार वर्ण बनाए हैं तथा कर्म का लगाने वाला कर्ता ब्रह्म ही है।)(3.14-3.15)

एवम्प्रवर्तितम्चक्रम्अनुवर्तयतिइहयः,
अघायुःइन्द्रियारामःमोघम्पार्थसःजीवति ।।3.16।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (यः) जो पुरुष (इह) इस लोकमें (एवम्) इस प्रकार परम्परासे (प्रवर्तितम्) प्रचलित (चक्रम्) सृष्टिचक्रके (नअनुवर्तयति) अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता (सः) वह (इन्द्रियारामः) इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला (अघायुः) पापी पुरुष (मोघम्) व्यर्थ ही (जीवति) जीवित है। (3.16)

यःतुआत्मरतिःएवस्यात्आत्मतृप्तःमानवः,
आत्मनिएवसन्तुष्टःतस्यकार्यम्विद्यते ।।3.17।।
अनुवाद: (तु) परंतु (यः) जो (मानवः) मनुष्य (एव) वास्तव में (आत्मरतिः) आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला ही रमण (च) और (आत्मतृप्तः) परमात्मा में ही तृप्त (च) तथा (आत्मनि एव) परमात्मा में ही (सन्तुष्टः) संतुष्ट (स्यात्) हो, (तस्य) उसके लिये (कार्यम्) कोई कर्तव्य (न) नहीं (विद्यते) जान पड़ता। (3.17)

एवतस्यकृतेनअर्थःअकृतेनइहकश्चन,
अस्यसर्वभूतेषुकश्चित्अर्थव्यपाश्रयः ।।3.18।।
अनुवाद: (तस्य) उस महापुरुषका (इह) इस विश्वमें (न) न तो (कृतेन) कर्म करनेसे (कश्चन) कोई (अर्थः) प्रयोजन रहता है और (न) न (अकृतेन) कर्मोंके न करनेसे (एव) ही कोई प्रयोजन रहता है (च) तथा (सर्वभूतेषु) सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी (अस्य) इसका (कश्चित्) किंचितमात्रा भी (अर्थव्यपाश्रयः) स्वार्थका सम्बन्ध (न) नहीं रहता। क्योंकि वह स्वार्थ रहित होने से किसी को शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म नहीं करवातान ही स्वयं करता है। वह धन उपार्जन के उद्देश्य से साधना नहीं करता या करवाता। (3.18)

तस्मात्असक्तःसततम्कार्यम्कर्मसमाचर,
असक्तःहिआचरन्कर्मपरम्आप्नोतिपूरुषः ।।3.19।।
अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये तू (सततम्) निरन्तर (असक्तः) आसक्तिसे रहित होकर सदा (कार्यम् कर्म) शास्त्र विधि अनुसार कर्तव्यकर्मको (समाचर) भलीभाँति करता रह। (हि) क्योंकि (असक्तः) इच्छासे रहित होकर (कर्म) भक्ति कर्म (आचरन्) करता हुआ (परम् पूरुषः) पूर्ण परमात्माको (आप्नोति) प्राप्त हो जाता है। (3.19)

जितात्मनःप्रशान्तस्यपरमात्मासमाहितः,
शीतोष्णसुखदुःखेषुतथामानापमानयोः ।।6.7।।
अनुवाद: (जितात्मनः) परमात्मा के कृप्या पात्र विजयी आत्मा अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करने से प्रभु से सर्व सुख व कार्य सिद्धि प्राप्त हो रही है वह (प्रशान्तस्य) पूर्ण संतुष्ट साधक (परमात्मा) पूर्ण प्रभु के ऊपर (समाहितः) पूर्ण रूपेण आश्रित है अर्थात् उसको किसी अन्य से लाभ की चाह नहीं रहती। वह तो (शितोष्ण) सर्दी व गर्मी अर्थात् (सुख दुःखेषु) सुख व दुःख में (तथा) तथा (मान-अपमानयोः) मान व अपमान में भी प्रभु की इच्छा जान कर ही निश्चिंत रहता है। (6.7)

यथादीपःनिवातस्थःइंगतेसाउपमास्मृता,
योगिनःयतचित्तस्ययुज्तःयोगम्आत्मनः।।6.19।।
अनुवाद: (यथा) जिस प्रकार (निवातस्थः) वायुरहित स्थानमें स्थित (दीपः) दीपक (न,इगंते) चलायमान नहीं होता (सा) वैसी ही (उपमा) उपमा (आत्मनः) शास्त्र अनुकूल साधक आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा अर्थात् पूर्ण ब्रह्म की (योगम्) साधना में (युज्तः) लगे हुए (यत) प्रयत्न शील (योगिनः) साधक के (चित्तस्य) चितकी (स्मृता) सुमरण स्थिति कही गयी है। (6.19)

यत्राउपरमतेचित्तम्निरुद्धम्योगसेवया,
यत्राएवआत्मनाआत्मानम्पश्यन्आत्मनितुष्यति।।6.20।।
अनुवाद: (चित्तम्) चित (निरुद्धम्) निरुद्ध (योगसेवया) योगके अभ्याससे (यत्रा) जिस अवस्थामें (उपरमते) ऊपर बताए मत-विचारों पर आधारित हो कर उपराम हो जाता है (च) और (यत्रा) जिस अवस्थामें (आत्मना) शास्त्र अनुकूल साधक जीवात्मा द्वारा (आत्मानम्) आत्मा के साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को सर्वत्रा (पश्यन्) देखकर (एव) ही वास्तव में (आत्मनि) आत्मा से अभेद पूर्ण परमात्मा में (तुष्यति) संतुष्ट रहता है अर्थात् वह डगमग नहीं रहता। (6.20)

सुखम् आत्यन्तिकम्यत्तत्बुद्धिग्राह्यम्अतीन्द्रियम्,
वेत्तियत्राएवअयम्स्थितःचलतितत्त्वतः ।।6.21।।
अनुवाद: (अतीन्द्रियम्) इन्द्रियोंसे अतीत (बुद्धिग्राह्यम्) केवल शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिद्वारा ग्रहण करने योग्य (यत्) जो (आत्यन्तिकम्) अनन्त (सुखम्) आनन्द है। कभी न समाप्त होने वाला सुख अर्थात् पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति पूर्ण मुक्ति के लिए प्रयत्न करता हुआ (तत्) उसको (यत्रा) जिस अवस्थामें (वेत्ति) अनुभव करता है (च) और (एव) वास्तव में इस प्रकार (स्थितः) स्थित (अयम्) यह योगी (तत्त्वतः) तत्वज्ञानी (न,चलति) विचलित नहीं होता। (6.21)

यम्लब्ध्वाअपरम्लाभम्मन्यतेअधिकम्ततः,
यस्मिन्स्थितःदुःखेनगुरुणाअपिविचाल्यते ।।6.22।।
अनुवाद: (यम्) केवल एक पूर्ण परमात्मा की शास्त्र अनुकूल साधना से एक ही प्रभु पर मन को रोकने वाले साधक जिस (लाभम्) लाभको (लब्ध्वा) प्राप्त होकर (ततः) उससे (अधिकम्) अधिक (अपरम्) दूसरा कुछ भी लाभ (न,मन्यते) नहीं मानता (च) और (यस्मिन्) जिस कारण से (स्थितः) सत्य भक्ति पर अडिग साधक (गुरुणा) बड़े भारी (दुःखेन) दुःखसे (अपि) भी (न, विचाल्यते) चलायमान नहीं होता। (6.22)

तम्विद्यात्दुःखसंयोगवियोगम्योगसञ्ज्ञितम्,
सःनिश्चयेनयोक्तव्यःयोगःअनिर्विण्णचेतसा ।।6.23।।
अनुवाद: (तम्) अज्ञान अंधकार से अज्ञात पूर्ण परमात्मा के (योगसञ्ज्ञितम्) वास्तविक भक्ति ज्ञान को (विद्यात्) जानना चाहिए। (दुःख संयोग) जो पापकर्मों के संयोग से उत्पन्न दुःख का (वियोगम्) अन्त अर्थात् छूटकारा करता है (सः) वह (योगः) भक्ति (अनिर्विण्णचेतसा) न उकताये अर्थात् न मुर्झाए् हुए चितसे (निश्चयेन) निश्चयपूर्वक (योक्तव्यः) करना कर्तव्य है अर्थात् करनी चाहिए। (6.23)

संकल्पप्रभवान्कामान्त्यक्त्वासर्वान्अशेषतः,
मनसाएवइन्द्रियग्रामम्विनियम्यसमन्ततः।।6.24।।
अनुवाद: (संकल्पप्रभवान्) संकल्पसे उत्पन्न होनेवाली (सर्वान्) सम्पूर्ण (कामान्) कामनाओंको (एव) वास्तव में (अशेषतः) जड़ामूल से अर्थात् समूल (त्यक्त्वा) त्यागकर और (मनसा) मनके द्वारा (इन्द्रियग्रामम्) इन्द्रियोंके (समन्ततः) सभी ओरसे (विनियम्य) भलीभाँति रोककर। (6.24)

शनैःशनैःउपरमेत्बुद्धयाधृतिगृहीतया,
आत्मसंस्थम्मनःकृत्वाकिंचित्अपिचिन्तयेत् ।।6.25।।
अनुवाद: (शनैः,शनैः) धीरे-धीरे अभ्यास करता हुआ (उपरमेत्) उपरोक्त दिए गए मत अर्थात् ज्ञान विचार द्वारा (धृतिगृहीतया) धैर्ययुक्त (बुद्धया) बुद्धिके द्वारा (मनः) मनको (आत्मसंस्थम्) पूर्ण परमात्मा में टिका कर अर्थात् स्थित (कृत्वा) करके (किंचित्) कुछ (अपि) भी (न,चिन्तयेत्) चिन्तन न करे। (6.25)

यतःयतःनिश्चरतिमनःचञ्चलम्अस्थिरम्,
ततःततःनियम्यएतत्आत्मनिएववशम्नयेत् ।।6.26।।
अनुवाद: (एतत्) यह (अस्थिरम्) स्थिर न रहनेवाला और (चञ्चलम्) चंचल (मनः) मन (यतः,यतः) जहाँ-जहाँ (निश्चरति) विचरता है (ततः,ततः) उस उससे (नियम्य) हटाकर (आत्मनि) शास्त्र अनुकूल साधक पूर्ण परमात्मा की कृप्या पात्रा आत्मा अपने पूर्ण प्रभु के सहयोग से (एव) ही (वशम्) मन को वश में (नयेत्) करे। (6.26)

प्रशान्तमनसम्हिएनम्योगिनम्सुखम्उत्तमम्,
उपैतिशान्तरजसम्ब्रह्मभूतम्अकल्मषम् ।।6.27।।
अनुवाद: (एनम्) शास्त्र विधि त्यागकर साधना करना पाप है इसलिए इस पाप को (हि) निश्चय ही त्याग कर (प्रशान्तमनसम्) जिस शास्त्र अनुकूल साधक का मन भली प्रकार एक पूर्ण परमात्मा में शांत है (अकल्मषम्) जो पापसे रहित है, (शान्तरजसम्) जो भौतिक सुख नहीं चाहता (ब्रह्मभूतम्) परमात्मा के हंस (योगिनम्) विधिवत् साधक को (उत्तमम्) उत्तम (सुखम्) आनन्द (उपैति) प्राप्त होता है अर्थात् पूर्ण मुक्ति प्राप्त होती है। (6.27)

यज्ञशिष्टामृतभुजःयान्तिब्रह्मसनातनम्,
अयम्लोकःअस्तिअयज्ञस्यकुतःअन्यःकुरुसत्तम ।।4.31।।
अनुवाद: (कुरुसत्तम) हे कुरुक्षेष्ठ अर्जुन! (यज्ञशिष्टामृतभुजः) उपरोक्त शास्त्र विधि रहित साधनाओं से बचे हुए बुद्धिमान साधक शास्त्र अनुकूल साधना से बचे हुए लाभ को उपभोग करके (सनातनम् ब्रह्म) आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात्-पूर्णब्रह्मको (यान्ति) प्राप्त होते हैं और (अयज्ञस्य) शास्त्र विधि अनुसार पूर्ण प्रभु की भक्ति न करनेवाले पुरुषके लिये तो (अयम्) यह (लोकः) मनुष्य-लोक भी सुखदायक (न) नहीं (अस्ति) है फिर (अन्यः) परलोक (कुतः) कैसे सुखदायक हो सकता है (4.31)
भावार्थ:- यज्ञ से बचे हुए अमृत का भोग करने का अभिप्रायः है कि ‘‘पूर्ण परमात्मा की साधना करने वाले साधक अपने शरीर के कमलों को खोलने वाले जिन मन्त्रों का जाप करते हैं। उन मन्त्रों में श्री ब्रह्मा जीश्री विष्ण जी तथा श्री शिव जी व श्री दुर्गा जी के जाप भी हैं जो संसारिक सुख प्राप्त कराते हैं। इन के मन्त्रों जाप से उपरोक्त देवी व देवताओं के ऋण से मुक्ति मिलती है जो मन्त्रों के जाप की ऋण उतरने के पश्चात् शेष कमाई है उस शेष जाप की कमाई से पूर्ण परमात्मा के साधक को अत्यधिक संसारिक लाभ प्राप्त होता है। इस श्लोक 4.31 में यही कहा है कि पूर्ण परमात्मा का साधक यज्ञ अर्थात् साधना (अनुष्ठान) से बची शेष भक्ति कमाई का उपयोग करके पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ है कि पूर्ण परमात्मा के विधिवत् साधक को संसारिक सुख भी अधिक प्राप्त होता है तथा पूर्ण मोक्ष भी प्राप्त होता है।

यज्ञशिष्टाशिनःसन्तःमुच्यन्तेसर्वकिल्बिषैः,
भुञ्जतेतेतुअघम्पापाःयेपचन्तिआत्मकारणात् ।।3.13।।
अनुवाद: (यज्ञशिष्टाशिनः) यज्ञ में प्रतिष्ठित इष्ट अर्थात् पूर्ण परमात्मा को भोग लगाने के बाद बने प्रसाद को खाने वाले (सन्तः) साधु (सर्वकिल्बिषैः) यज्ञादि न करने से होने वाले सब पापोंसे (मुच्यन्ते) बच जाते हैं और (ये) जो (पापाः) पापीलोग (आत्मकारणात्) अपना शरीर पोषण करनेके लिये ही (पचन्ति) अन्न पकाते हैं (ते) वे (तु) तो (अघम्) पापको ही (भुञ्जते) खाते हैं। ( 3.13)

यःशास्त्राविधिम्उत्सृज्यवर्ततेकामकारतः,
सःसिद्धिम्अवाप्नोतिसुखम्पराम्गतिम् ।।16.23।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष (शास्त्राविधिम्) शास्त्राविधिको (उत्सृज्य) त्यागकर (कामकारतः) अपनी इच्छासे मनमाना (वर्तते) आचरण करता है (सः) वह (न) न (सिद्धिम्) सिद्धिको (अवाप्नोति) प्राप्त होता है (न) न (पराम्) परम (गतिम्) गतिको और (न) न (सुखम्) सुखको ही। (16.23)

तस्मात्शास्त्राम्प्रमाणम्तेकार्याकार्यव्यवस्थितौ,
ज्ञात्वाशास्त्राविधानोक्तम्कर्मकर्तुम्इहअर्हसि ।।16.24।।
अनुवाद: (तस्मात्) इससे (ते) तेरे लिये (कार्याकार्यव्यवस्थितौ) कर्तव्य और अकर्तव्यकी व्यवस्थामें (शास्त्राम्) शास्त्रा ही (प्रमाणम्) प्रमाण है (इह) इसे (ज्ञात्वा) जानकर (शास्त्राविधानोक्तम्) शास्त्राविधिसे नियत (कर्म) कर्म ही (कर्तुम्) करने (अर्हसि) योग्य है। (16.24)

विशेष - जो साधक शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजा करते हैं उनको न तो कोई सुख प्राप्त होता हैन सिद्धि तथा न ही कोई गति प्राप्त होती है अर्थात् व्यर्थ है। इसलिए शास्त्रों में अर्थात् वेदों में जो भक्ति साधना के कर्म करने का आदेश है तथा जो न करने का आदेश है वही मानना श्रेयकर है।

एवम्बहुविधाःयज्ञाःवितताःब्रह्मणःमुखे,
कर्मजान्विद्धितान्सर्वान्एवम्ज्ञात्वाविमोक्ष्यसे ।।4.32।।
अनुवाद: (एवम्) इस प्रकार और भी (बहुविधाः) बहुत तरहके शास्त्र अनुसार (यज्ञाः) धार्मिक क्रियाऐं हैं (तान्) उन (सर्वान्) सबको तू (कर्मजान्) कर्मों के द्वारा होने वाली यज्ञों को (विद्धि) जान (एवम्) इस प्रकार (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्माके (मुखे) मुख कमल से (वितताः) पाँचवे वेद अर्थात् स्वसम वेद में विस्तारसे कहे गये हैं। (ज्ञात्वा) जानकर (विमोक्ष्यसे) पूर्ण मुक्त हो जायगा। (4.32)

ऊँतत्सत्इतिनिर्देशःब्रह्मणःत्रिविधःस्मृतः,
ब्राह्मणाःतेनवेदाःयज्ञाःविहिताःपुरा ।।17.23।।
अनुवाद: (ऊँ )ओंम् मन्त्र ब्रह्म का, (तत्) तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म का, (सत्) सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) आदेश (स्मृतः) कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने (तेन) उसी (वेदाः) तत्वज्ञान के आधार से वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे। उसी आधार से साधना करते थे। (17.23)

तस्मात्ओम्इतिउदाहृत्ययज्ञदानतपःक्रियाः,
प्रवर्तन्तेविधानोक्ताःसततम्ब्रह्मवादिनाम् ।।17.24।।
अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये (ब्रह्मवादिनाम्) भगवान की स्तुति करनेवाले तथा (विधानोक्ताः) शास्त्र विधिसे नियत क्रियाऐं बताने वालों की (यज्ञदानतपःक्रियाः) यज्ञदान और तप व स्मरण क्रियाएँ (सततम्) सदा (ओम्) ऊँ‘ (इति) इस नामको (उदाहृत्य) उच्चारण करके ही (प्रवर्तन्ते) आरम्भ होती हैं अर्थात् तीनों नामों के जाप में ऊँ (ओंम्) से ही स्वांस द्वारा प्रारम्भ किया जाता है। (17.24)

तत्इतिअनभिसन्धायफलम्यज्ञतपःक्रियाः,
दानक्रियाःविविधाःक्रियन्तेमोक्षकाङ्क्षिभिः ।।17.25।।
अनुवाद: (तत्) अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म के तत् मन्त्र के जाप (इति) पर स्वांस इति अर्थात् अन्त होता है तथा (फलम्) फलको (अनभिसन्धाय) न चाहकर (विविधाः) नाना प्रकारकी (यज्ञतपःक्रियाः) यज्ञतपरूप क्रियाएँ (च) तथा (दानक्रियाः) दानरूप क्रियाएँ (मोक्षकाङ्क्षिभिः) कल्याण की इच्छावाले अर्थात् केवल जन्म-मृत्यु से पूर्ण छुटकारा चाहने वाले पुरुषोंद्वारा (क्रियन्ते) की जाती हैं {अर्थात् यह तत जाप ‘‘सोहं‘‘ मन्त्र है जो परब्रह्म का जाप मन्त्र है और सतनाम के स्वांस द्वारा जाप में तत् मन्त्रा पर स्वांस का इति अर्थात् अन्त होता है}। (25)

सद्भावेसाधुभावेसत्इतिएतत्प्रयुज्यते,
प्रशस्तेकर्मणितथासत्शब्दःपार्थयुज्यते ।।17.26।।
अनुवाद: (सत्) सत्‘ (इति) यह सारनाम तत् मन्त्र के अन्त में (एतत्) इसी पूर्ण परमात्मा के नाम के साथ (सद्भावे) सत्यभावमें (च) और (साधुभावे) श्रेष्ठभावमें (प्रयुज्यते) प्रयोग किया जाता है (तथा) तथा (पार्थ) हे पार्थ! (प्रशस्ते) उत्तम (कर्मणि) कर्ममें ही (सत् शब्दः) सत् शब्द अर्थात् सारनाम का (युज्यते) प्रयोग किया जाता है अर्थात् पूर्वोक्त दोनों मन्त्रों ऊँ व तत् के अन्त में जोड़ा जाता है। (17.26)

यज्ञेतपसिदानेस्थितिःसत्इतिउच्यते,
कर्मएवतदर्थीयम्सत्इतिएवअभिधीयते ।।17.27।।
अनुवाद: (च) तथा (यज्ञे) यज्ञ (तपसि) तप (च) और (दाने) दानमें जो (स्थितिः) स्थिति है (एव) भी (सत्) सत्‘ (इति) इस प्रकार (उच्यते) कही जाती हे (च) और (तदर्थीयम्) उस परमात्माके लिये किए हुए (कर्म) शास्त्र अनुकूल किया भक्ति कर्म में (एव) ही वास्तव में (सत्) सत् शब्द के (इति) अन्त में कोई अन्य शब्द (अभिधीयते) तत्वदर्शी संत द्वारा कहा जाता है। जैसे सत् साहेबसतगुरूसत् पुरूषसतलोकसतनाम आदि शब्द बोले जाते हैं। (17.27)

स्पर्शान्कृत्वाबहिःबाह्यान्चक्षुःएवअन्तरेभ्रुवोः,
प्राणापानौसमौकृत्वानासाभ्यन्तरचारिणौ ।।5.27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिःमुनिःमोक्षपरायणः,
विगतेच्छाभयक्रोधःयःसदामुक्तःएवसः ।।5.28।।
अनुवाद: (एव) वास्तव में (बाह्यान्) बाहरके (स्पर्शान्) विषयभोगोंको (बहिः) बाहर (कृत्वा) निकालकर (च) और (चक्षुः) नेत्रोंकी दृष्टिको (भु्रवोः) भृकुटीके (अन्तरे) बीचमें स्थित करके तथा (नासाभ्यन्तरचारिणौ) नासिकामें चलने(प्राणापानौ) प्राण और अपानवायु अर्थात् स्वांस-उस्वांस को (समौ) सम (कृत्वा) करके सत्यनाम सुमरण करता है (यतेन्द्रियमनोबुद्धिः) जिसने इन्द्रियाँमन और बुद्धि जीती हुई हैंअर्थात् जो नाम स्मरण पर ध्यान लगाता है मन को भ्रमित नहीं होने देता ऐसा (यः) जो (मोक्षपरायणः) मोक्षपरायण मोक्ष के लिए प्रयत्न शील (मुनिः) मननशील साधक (विगतेच्छाभयक्रोधः) इच्छाभय और क्रोध से रहित हो गया है, (एव) वास्तव में (सः) वह (सदा) सदा (मुक्तः) मुक्त है। (5.27-5.28)

विशेष:- विशेष-जो साधक पूर्ण संत अर्थात् तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त कर लेता है फिर स्वांस-उस्वांस से सामान्य रूप से सुमरण करता है वही विकार रहित होकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करके अनादि मोक्ष प्राप्त करता है।

गीता 5.29 में- जो ब्रह्म काल को ही सर्व का मालिक व सर्व सुखदाई दयालु प्रभु मान कर ब्रह्म काल की ही साधना पर आश्रित हैंवे पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने से मिलने वाली शान्ति से वंचित रह जाते हैं अर्थात् उनका पूर्ण मोक्ष नहीं होता। उनकी शान्ति समाप्त हो जाती है तथा नाना प्रकार के कष्ट उठाते रहते हैं। 

(अर्जुन उवाच)
किम्तत्ब्रह्मकिम्अध्यात्मम्किम्कर्मपुरुषोत्तम्,
अधिभूतम्किम्प्रोक्तम्अधिदैवम्किम्उच्यते ।।8.1।।
अनुवाद: (पुरुषोत्तम) हे पुरुषोत्तम! (तत्) वह (ब्रह्म) ब्रह्म (किम्) क्या है (अध्यात्मम्) अध्यात्म (किम्) क्या है? (कर्म) कर्म (किम्) क्या है? (अधिभूतम्) अधिभूत नामसे (किम्) क्या (प्रोक्तम्) कहा गया है (च) और (अधिदैवम्) अधिदैव (किम्) किसको (उच्यते) कहते हैं?(8.1)

अधियज्ञःकथम्कःअत्रादेहेअस्मिन्मधुसूदन,
प्रयाणकालेकथम्ज्ञेयःअसिनियतात्मभिः।।8.2।।
अनुवाद: (मधुसूदन) हे मधुसूदन! (अत्रा) यहाँ (अधियज्ञः) अधियज्ञ (कः) कौन है और वह (अस्मिन्) इस (देहे) शरीरमें (कथम्) कैसे है? (च) तथा (नियतात्मभिः) युक्त चितवाले पुरुषोंद्वारा (प्रयाणकाले) अन्त समयमें (कथम्) किस प्रकार (ज्ञेयः) जाननेमें आते (असि) हैं। (8.2)

(श्री भगवान उवाच)
अक्षरम्ब्रह्मपरमम्स्वभावःअध्यात्मम्उच्यते,
भूतभावोद्भवकरःविसर्गःकर्मसञ्ज्ञितः ।। 8.3।।
अनुवाद: गीता ज्ञान दाता ब्रह्म भगवान ने उत्तर दिया वह (परमम्) परम (अक्षरम्) अक्षर (ब्रह्म) ब्रह्म‘ है जो जीवात्मा के साथ सदा रहने वाला है (स्वभावः) उसीका स्वरूप अर्थात् परमात्मा जैसे गुणों वाली जीवात्मा (अध्यात्मम्) अध्यात्म‘ नामसे (उच्यते) कहा जाता है तथा (भूतभावोद्भवकरः) जीव भावको उत्पन्न करनेवाला जो (विसर्गः) त्याग है वह (कर्मसञ्ज्ञितः) कर्म‘ नामसे कहा गया है। ( 8.3)

कविम्पुराणम् अनुशासितारम्अणोःअणीयांसम्अनुस्मरेत्,
यःसर्वस्यधातारम्अचिन्त्यरूपम्आदित्यवर्णम्तमसःपरस्तात् ।।8.9।।
अनुवाद: (कविम्) कविर्देवअर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप में प्रसिद्ध होता है वह (पुराणम्) अनादि, (अनुशासितारम्) सबके नियन्ता (अणोःअणीयांसम्) सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, (सर्वस्य) सबके (धातारम्) धारण-पोषण करने वाला (अचिन्त्यरूपम्) अचिन्त्य-स्वरूप (आदित्यवर्णम्) सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है (यः) जो साधक (तमसः) उस अज्ञानरूप अंधकारसे (परस्तात्) अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका (अनुस्मरेत्) सुमरण करता है। (8.9)

प्रयाणकालेमनसाअचलेनभक्त्यायुक्तःयोगबलेनएवभ्रुवोः,
मध्येप्राणम्आवेश्यसम्यक्सःतम्परम् पुरुषम्उपैतिदिव्यम् ।।8.10।।
अनुवाद: (सः) वह (भक्त्यायुक्तः) भक्तियुक्त साधक (प्रयाणकाले) अन्तकालमें (योगबलेन) नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे (भ्रुवोः) भृकुटी के (मध्ये) मध्यमें (प्राणम्) प्राणको (सम्यक्) अच्छी प्रकार (आवेश्य) स्थापित करके (च) फिर (अचलेन) निश्चल (मनसा) मनसे (तम्) अज्ञात (दिव्यम्) दिव्यरूप (परम्) परम (पुरुषम्)  पुरुष भगवानको (एव) ही (उपैति) प्राप्त होता है। (8.10)

सहस्त्रायुगपर्यन्तम्अहः,यत्,ब्रह्मणःविदुः,रात्रिम्,
युगसहस्त्रान्ताम्तेअहोरात्राविदःजनाः ।।8.17।।
अनुवाद: (ब्रह्मणः) परब्रह्म का (यत्) जो (अहः) एक दिन है उसको (सहस्त्रायुगपर्यन्तम्) एक हजार युग की अवधिवाला और (रात्रिम्) रात्रिको भी (युगसहस्त्रान्ताम्) एक हजार युगतककी अवधिवाली (विदुः) तत्वसे जानते हैं (ते) वे (जनाः) तत्वदर्शी संत (अहोरात्राविदः) दिन-रात्री के तत्वको जाननेवाले हैं। (8.17)

विशेषः- सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्रा) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्रा) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म-काल के तमोगुण पुत्रा) की मृत्यु होती है। ऐसे 70,000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग अर्थात् एक हजार ब्रह्मलोकिय शिव (ब्रह्मलोक में स्वयं काल ही महाशिव रूप में रहता है) की मृत्यु के बाद काल के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है। इसलिए यहाँ पर परब्रह्म के एक दिन जो एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्री होती है।

‘‘सर्व प्रभुओं की आयु’’
(1) रजगुण ब्रह्मा की आयुः-ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का है तथा इतनी ही रात्री है। (एक चतुर्युग में 43,20,000 मनुष्यों वाले वर्ष होते हैं) एक महिना तीस दिन रात का हैएक वर्ष बारह महिनों का है तथा सौ वर्ष की ब्रह्मा जी की आयु है। जो सात करोड़ बीस लाख चतुर्युग की है।
(2) सतगुण विष्णु की आयुः-श्री ब्रह्मा जी की आयु से सात गुणा अधिक श्री विष्णु जी की आयु है अर्थात् पचास करोड़ चालीस लाख चतुर्युग की श्री विष्णु जी की आयु है।
(3) तमगुण शिव की आयुः-श्री विष्णु जी की आयु से श्री शिव जी की आयु सात गुणा अधिक है अर्थात् तीन अरब बावन करोड़ अस्सी लाख चतुर्युग की श्री शिव की आयु है।
(4) काल ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरूष की आयुः-सात त्रिलोकिय ब्रह्मा (काल के रजगुण पुत्रा) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय विष्णु जी की मृत्यु होती है तथा सात त्रिलोकिय विष्णु (काल के सतगुण पुत्रा) की मृत्यु के बाद एक त्रिलोकिय शिव (ब्रह्म/काल के तमोगुण पुत्रा) की मृत्यु होती है। ऐसे 70000 (सतर हजार अर्थात् 0.7 लाख) त्रिलोकिय शिव की मृत्यु के उपरान्त एक ब्रह्मलोकिय महा शिव (सदाशिव अर्थात् काल) की मृत्यु होती है। एक ब्रह्मलोकिय महाशिव की आयु जितना एक युग परब्रह्म (अक्षर पुरूष) का हुआ। ऐसे एक हजार युग का परब्रह्म का एक दिन होता है। परब्रह्म के एक दिन के समापन के पश्चात् काल ब्रह्म के इक्कीस ब्रह्मण्डों का विनाश हो जाता है तथा काल व प्रकृति देवी(दुर्गा) की मृत्यु होती है। परब्रह्म की रात्री (जो एक हजार युग की होती है) के समाप्त होने पर दिन के प्रारम्भ में काल व दुर्गा का पुनर्जन्म होता है फिर ये एक ब्रह्मण्ड में पहले की भांति सृष्टि प्रारम्भ करते हैं। इस प्रकार परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष का एक दिन एक हजार युग का होता है तथा इतनी ही रात्री है।
(5) अक्षर पुरूष अर्थात् परब्रह्म की आयु:- परब्रह्म का एक युग ब्रह्मलोकीय शिव अर्थात् महाशिव (काल ब्रह्म) की आयु के समान होता है। परब्रह्म का एक दिन एक हजार युग का तथा इतनी ही रात्री होती है। इस प्रकार परब्रह्म का एक दिन-रात दो हजार युग का हुआ। एक महिना 30 दिन का एक वर्ष 12 महिनों का तथा परब्रह्म की आयु सौ वर्ष की है। इस से सिद्ध है कि परब्रह्म अर्थात् अक्षर पुरूष भी नाश्वान है। इसलिए किसी अन्य पूर्ण परमात्मा के विषय में कहा है जो वास्तव में अविनाशी है।
नोट:- गीता जी के अन्य अनुवाद कर्ताओं ने ब्रह्मा का एक दिन एक हजार चतुर्युग का लिखा है जो उचित नहीं है। क्योंकि मूल संस्कृत में सहंसर युग लिखा है न की चतुर्युग। तथा ब्रह्मणः लिखा है न कि ब्रह्मा। तत्वज्ञान के अभाव से अर्थों का अनर्थ किया है।

अव्यक्तात्व्यक्तयःसर्वाःप्रभवन्तिअहरागमे,
रात्रयागमेप्रलीयन्तेतत्राएवअव्यक्तसञ्ज्ञके ।।8.18।।
अनुवाद: (सर्वाः) सम्पूर्ण (व्यक्तयः) प्रत्यक्ष आकार में आया संसार (अहरागमे) परब्रह्म के दिनके प्रवेशकालमें (अव्यक्तात्) अव्यक्तसे अर्थात् अदृश परब्रह्म से (प्रभवन्ति) उत्पन्न होते हैं और (रात्रयागमे) रात्रि आने पर (तत्रा) उस (अव्यक्तसञ्ज्ञके) अदृश अर्थात् परोक्ष परब्रह्म में (एव) ही (प्रलीयन्ते) लीन हो जाते हैं। (8.18)

भूतग्रामःसःएवअयम्भूत्वाभूत्वाप्रलीयते,
रात्रयागमेअवशःपार्थप्रभवतिअहरागमे ।।8.19।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (सः,एव) वही (अयम्) यह (भूतग्रामः) प्राणी समुदाय (भूत्वाभूत्वा) उत्पन्न हो होकर (अवशः) संस्कार वश होकर (रात्रयागमे) रात्रिके प्रवेशकालमें (प्रलीयते) लीन होता है और (अहरागमे) दिनके प्रवेशकालमें फिर (प्रभवति) उत्पन्न होता है। (8.19)

परःतस्मात्तुभावःअन्यःअव्यक्तः,, अव्यक्तात्सनातनः।
यः सःसर्वेषुभूतेषुनश्यत्सुविनश्यति ।।8.20।।
अनुवाद: (तु) परंतु (तस्मात्) उस (अव्यक्तात्) अव्यक्त अर्थात् गुप्त परब्रह्म से भी अति (परः) परे (अन्यः) दूसरा (यः) जो (सनातनः) आदि (अव्यक्तः) अव्यक्त अर्थात् परोक्ष (भावः) भाव है (सः) वह परम दिव्य पुरुष (सर्वेषु) सब (भूतेषु) प्राणियों के (नश्यत्सु) नष्ट होने पर भी (नविनश्यति) नष्ट नहीं होता। (8.20)

अव्यक्तःअक्षरःइतिउक्तःतम्आहुःपरमाम्गतिम्।
यम्प्राप्यनिवर्तन्तेतत् धामपरमम्मम् ।।8.21।।
अनुवाद: (अव्यक्तः) अदृश अर्थात् परोक्ष (अक्षरः) अविनाशी (इति) इस नामसे (उक्तः) कहा गया है (तम्) अज्ञान के अंधकार में छुपे गुप्त स्थान को (परमाम्गतिम्) परमगति (आहुः) कहते हैं (यम्) जिसे (प्राप्य) प्राप्त होकर मनुष्य (ननिवर्तन्ते) वापस नहीं आते (तत् धाम) वह लोक (परमम् मम्) मुझ से व मेरे लोक से श्रेष्ठ है। (8.21)

क्योंकि काल (ब्रह्म) सत्यलोक से निष्कासित हैइसलिए कह रहा है कि मेरा भी वास्तविक स्थान सत्यलोक है। मैं भी पहले वहीं रहता था तथा मेरे लोक से श्रेष्ठ है। जहाँ जाने के पश्चात् वापिस जन्म-मृत्यु में नहीं आते अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं।
गीता में ब्रह्म व परब्रह्म दो परमात्माओं का वर्णन है। सर्व प्राणी अव्यक्त परमात्मा अर्थात् परब्रह्म में प्रलय समय लीन हो जाते है। फिर उत्पत्ति समय उत्पन्न हो जाते हैं। उस अव्यक्त अर्थात् परब्रह्म से दूसरा अव्यक्त परमात्मा अर्थात् पूर्ण ब्रह्म है जहाँ जाने के पश्चात् प्राणी फिर लौट कर संसार में नहीं आते। अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस प्रकार तीन परमात्मा सिद्ध हुए।

पुरुषःसःपरःपार्थभक्त्यालभ्यःतुअनन्यया।
यस्यअन्तःस्थानिभूतानियेनसर्वम्इदम्ततम् ।।8.22।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ! (यस्य) जिस परमात्माके (अन्तःस्थानि) अन्तर्गत (भूतानि) सर्वप्राणी हैं और (येन) जिस सच्चिदानन्दघन परमात्मासे (इदम्) यह (सर्वम्) समस्त जगत् (ततम्) परिपूर्ण है। (सः) वह (परः) परम (पुरुषः) परमात्मा (तु) तो (अनन्यया) अनन्य (भक्त्या) भक्तिसे ही (लभ्यः) प्राप्त होने योग्य है। (8.22)

यावान्अर्थःउदपानेसर्वतःसम्प्लुतोदके,
तावान्सर्वेषुवेदेषुब्राह्मणस्यविजानतः ।।2.46।।
अनुवाद: (सर्वतः) सब ओरसे (सम्प्लुतोदके) परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जाने पर (उदपाने) छोटे जलाशयमें मनुष्यका (यावान्) जितना (अर्थः) प्रयोजन रहता है पूर्ण परमात्माको (विजानतः) तत्वसे जाननेवाले (ब्राह्मणस्य) विद्वानका (सर्वेषु) समस्त (वेदेषु) ज्ञानों में (तावान्) उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (2.46)

भावार्थ:- इसी प्रकार तत्वज्ञान की प्राप्ति हो जाने पर अन्य ज्ञानों (चारों वेदों अठारह पुराणों व गीता जी आदि) मैं ऐसी श्रद्धा नहीं रह जाती क्योंकि उनमें पर्याप्त ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार तत्वज्ञान के आधार से पूर्ण परमात्मा के गुणों का ज्ञान हो जाने पर अन्य परमात्माओं (परब्रह्मब्रह्म तथा श्री ब्रह्माश्री विष्णु तथा श्री शिव व दुर्गा) में ऐसी श्रद्धा नहीं रह जाती। ये अन्य देवता बुरे नहीं लगते परन्तु इनसे मिलने वाला लाभ पर्याप्त नहीं है। (2.46)

No comments:

Post a Comment