श्रीमद्भगदगीता में आत्मा ज्ञान
अन्तवन्तः, इमे, देहाः, नित्यस्य, उक्ताः, शरीरिणः,
अनाशिनः, अप्रमेयस्य, तस्मात्, युध्यस्व, भारत ।।2.18।।
अनुवाद:
(इमे) ये (देहाः) पंच भौतिक शरीर (अन्तवन्तः) नाशवान् है (शरीरिणः) अविनाशी परमात्मा
जो आत्मा सहित शरीर में नित्य रहता है। (अप्रमेयस्य) साधारण साधक पूर्ण परमात्मा व
आत्मा के अभेद सम्बन्ध से अपरिचित है इसलिए प्रमाण रहित को (नित्यस्य) आत्मा के
साथ नित्य रहने वाला (अनाशिनः) अविनाशी (उक्ताः) कहा गया हैं। (तस्मात्) इसलिये
(भारत) हे भरतवंशी अर्जुन! (युध्यस्व) युद्ध कर। (2.18)
भावार्थ:-
परमात्मा की निराकार शक्ति आत्मा के साथ ऐसे जानों जैसे मोबाइल फोन रेंज से ही
कार्य करता है। टावॅर एक स्थान पर होते हुए भी अपनी रेंज से अपने क्षेत्र वाले
मोबाईल फोन के साथ अभेद है। इसको वही समझ सकता है जो मोबाईल फोन रखता है। इसी
प्रकार परमात्मा अपने निज स्थान सत्यलोक में रहता है या जहाँ भी आता जाता है अपनी
निराकार शक्ति की रेंज को उसी तरह प्रत्येक ब्रह्मण्ड के प्रत्येक प्राणी व स्थान
अर्थात् जड़ व चेतन पर फैलाए रहता है।
जैसे
सूर्य दूर स्थान पर रहते हुए भी अपना प्रकाश व अदृश्य उष्णता (गर्मी) को अपने
क्षमता क्षेत्रा सर्व ब्रह्मण्ड़ों पर कण-कण में फैलाए रहता है। इसी प्रकार
परमात्मा के शरीर से निकल रहा प्रकाश व अदृश्य शक्ति सर्व जड़ व चेतन को संभाले
हुए है।
यः, एनम्, वेत्ति, हन्तारम्, यः, च, एनम्, मन्यते, हतम्,
उभौ तौ, न, विजानीतः, न, अयम्, हन्ति, न, हन्यते ।।2.19।।
अनुवाद:
(यः) जो (एनम्) इसको (हन्तारम्) मारनेवाला (वेत्ति) समझता है (च) तथा (यः) जो
(एनम्) इसको (हतम्) मरा (मन्यते) मानता है (तौ) वे (उभौ) दोनों ही (न) नहीं
(विजानीतः) जानते क्योंकि (अयम्) वह वास्तवमें (न) न तो किसीको (हन्ति) मारता है
और (न) न किसीके द्वारा (हन्यते) मारा जाता है। (2.19)
भावार्थ:-
पूर्ण ब्रह्म का अभेद सम्बन्ध होने से आत्मा मरती नहीं तथा पूर्ण प्रभु दयालु है
वह किसी को मारता नहीं। जो कहे कि आत्मा मरती है व पूर्ण परमात्मा किसी को मारता
है, वे दोनों ही अज्ञानी हैं।
अव्यक्तः, अयम्, अचिन्त्यः, अयम्, अविकार्यः, अयम्, उच्यते,
तस्मात्, एवम्, विदित्वा, एनम्, न, अनुशोचितुम्, अर्हसि ।।2.25।।
अनुवाद:
(अयम्) यह परमात्मा इस आत्मा के साथ (अव्यक्तः) गुप्त रहता है (अयम्) यह (अचिन्त्यः)
अचिन्त्य है और (अयम्) यह (अविकार्यः) विकाररहित (उच्यते) कहा जाता है। (तस्मात्)
इससे हे अर्जुन! (एनम्) इस परमात्मा को (एवम्) इस प्रकारसे (विदित्वा) जानकर तू (अनुशोचितुम्)
शोक करनेके (न, अर्हसि) योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है।
भावार्थ है कि जब परमात्मा जीव के साथ है तो जीव का अहित नहीं होता। (2.25)
आश्चर्यवत्, पश्यति, कश्चित्, एनम्, आश्चर्यवत्,
वदति, तथा, एव, च, अन्यः, आश्चर्यवत्, च, एनम्, अन्यः,
श्रृणोति, श्रुत्वा, अपि, एनम्, वेद, न, च, एव, कश्चित् ।।2.29।।
अनुवाद:
(कश्चित्) कोई एक ही (एनम्) इस परमात्मा सहित आत्माको (आश्चर्यवत्) आश्चर्यकी
भाँति (पश्यति) देखता है (च) और (तथा) वैसे (एव) ही (अन्यः) दूसरा कोई महापुरुष ही
(आश्चर्यवत्) आश्र्चयकी भाँति (वदति) वर्णन करता है (च) तथा (अन्यः) दूसरा (एनम्)
इसे (आश्चर्यवत्) आश्चर्यकी भाँति (श्रृणोति) सुनता है (च) और (कश्चित्) कोई
(श्रुत्वा) सुनकर (अपि) भी (एनम्) इसको (न, एव) नहीं (वेद) जानता। (2.29)
देही, नित्यम्, अवध्यः, अयम्, देहे, सर्वस्य, भारत,
तस्मात्, सर्वाणि, भूतानि, न, त्वम्, शोचितुम्, अर्हसि ।।2.30।।
अनुवाद:
(भारत) हे अर्जुन! (अयम्) यह (देही) जीवात्मा परमात्मा के साथ (सर्वस्य) सबके
(देहे) शरीरोंमें (नित्यम्) सदा ही (अवध्यः) अविनाशी है (तस्मात्) इस कारण
(सर्वाणि) सम्पूर्ण (भूतानि) प्राणियोंके लिये (त्वम्) तू (शोचितुम्) शोक करनेको
(न, अर्हसि) योग्य नहीं है। (2.30)
प्रजहाति, यदा, कामान्, सर्वान्, पार्थ, मनोगतान्
आत्मनि, एव, आत्मना, तुष्टः, स्थितप्रज्ञः, तदा, उच्यते ।।2.55।।
अनुवाद:
(पार्थ) हे अर्जुन! (यदा) जिस कालमें यह पुरुष (मनोगतान्) मनमें स्थित (सर्वान्) सम्पूर्ण
(कामान्) कामनाओंको (प्रजहाति) भलीभाँति त्याग देता है और (आत्मना) आत्मासे
अर्थात् समर्पण भाव से (आत्मनि) आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा में
(एव) ही (तुष्टः) संतुष्ट रहता है, (तदा) उस
कालमें वह (स्थितप्रज्ञः) स्थितप्रज्ञ अर्थात् स्थाई बुद्धि वाला (उच्यते) कहा
जाता है अर्थात् फिर वह विचलित नहीं होता, केवल तत्वदर्शी संत के तत्वज्ञान पर पूर्ण रूप से आधारित रहता है। वह योगी है।
(2.55)
यः, तु, आत्मरतिः, एव, स्यात्, आत्मतृप्तः, च, मानवः,
आत्मनि, एव, च, सन्तुष्टः, तस्य, कार्यम्, न, विद्यते ।।3.17।।
अनुवाद:
(तु) परंतु (यः) जो (मानवः) मनुष्य (एव) वास्तव में (आत्मरतिः) आत्मा के साथ अभेद
रूप में रहने वाले परमात्मा में लीन रहने वाला ही रमण (च) और (आत्मतृप्तः)
परमात्मा में ही तृप्त (च) तथा (आत्मनि एव) परमात्मा में ही (सन्तुष्टः) संतुष्ट
(स्यात्) हो, (तस्य) उसके लिये (कार्यम्) कोई कर्तव्य (न) नहीं (विद्यते)
जान पड़ता। (3.17)
इन्द्रियाणि, पराणि, आहुः, इन्द्रियेभ्यः, परम्, मनः,
मनसः, तु, परा, बुद्धिः, यः, बुद्धेः, परतः, तु, सः ।।3.42।।
अनुवाद:
(इन्द्रियाणि) इन्द्रियोंको स्थूल शरीरसे (पराणि) पर यानी श्रेष्ठ, बलवान् और सूक्ष्म (आहुः) कहते हैं, (इन्द्रियेभ्यः)
इन इन्द्रियोंसे (परम्) अधिक (मनः) मन है, (मनसः) मनसे (तु) तो (परा) उत्तम (बुद्धिः) बुद्धि है (तु) और (यः) जो
(बुद्धेः) बुद्धिसे भी (परतः) अत्यन्त शक्तिशाली है, (सः) वह परमात्मा सहित आत्मा है। (3.42)
एवम्, बुद्धेः, परम्, बुद्ध्वा, संस्तभ्य, आत्मानम्, आत्मना,
जहि, शत्रुम्, महाबाहो, कामरूपम्, दुरासदम् ।।3.43।।
अनुवादः
(एवम्) इस प्रकार (बुद्धेः) बुद्धिसे (परम्) अत्यन्त श्रेष्ठ (आत्मानम्) परमात्मा
को (बुद्ध्वा) जानकर और (आत्मना) अपने आप को स्वअभ्यास द्वारा (संस्तभ्य) संयमी
(महाबाहो) हे महाबाहो! अर्जुन तू इस (कामरूपम्) कामरूप अर्थात् भोग विलास रूप
(दुरासदम्) दुर्जय (शत्रुम्) शत्रुको (जहि) मार डाल। (3.43)
अजः, अपि, सन्, अव्ययात्मा, भूतानाम्, ईश्वरः, अपि, सन्,
प्रकृतिम्, स्वाम्, अधिष्ठाय, सम्भवामि, आत्ममायया ।।4.6।।
अनुवाद:
(अजः) मनुष्यों की तरह मैं जन्म न लेने वाला और (अव्ययात्मा) अविनाशी आत्मा (सन्)
होते हुए (अपि) भी तथा (भूतानाम्) मेरे इक्कीस ब्रह्मण्डों के प्राणियोंका
(ईश्वरः) ईश्वर (सन्) होते हुए (अपि) भी (स्वाम्) अपनी (प्रकृतिम्) प्रकृति
अर्थात् दुर्गा को (अधिष्ठाय) अधीन करके अर्थात् पत्नी रूप में रखकर (आत्ममायया)
अपने अंश अर्थात् पुत्रों श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, व शिव जी उत्पन्न करता हूँ, फिर उन्हें श्री कृष्ण, श्री राम, श्री परसुराम आदि अंश अवतार (सम्भवामि) प्रकट करता हूँ। (4.6)
यदा, यदा, हि, धर्मस्य, ग्लानिः, भवति, भारत,
अभ्युत्थानम्, अधर्मस्य, तदा, आत्मानम्, सृजामि, अहम् ।।4.7।।
अनुवाद:
(भारत) हे भारत! (यदा,यदा) जब-जब (धर्मस्य) धर्मकी (ग्लानिः) हानि और (अधर्मस्य)
अधर्मकी (अभ्युत्थानम्) वृद्धि (भवति) होती है (तदा) तब-तब (हि) ही (अहम्) मैं (आत्मानम्)
अपना अंश अवतार (सृजामि) रचता हूँ अर्थात् उत्पन्न करता हूँ। (4.7)
निराशीः, यतचित्तात्मा, त्यक्तसर्वपरिग्रहः,
शारीरम्, केवलम्, कर्म, कुर्वन्, न, आप्नोति, किल्बिषम् ।।4.21।।
अनुवाद: (यतचित्तात्मा)
शास्त्र विधि अनुसार भक्ति प्राप्त आत्मा (त्यक्तसर्वपरिग्रहः) जिसने समस्त
शास्त्र विरुद्ध संग्रह की हुई साधनाओं का परित्याग कर दिया है ऐसा (निराशीः)
अविधिवत् साधना को फैंका हुआ अर्थात् शास्त्र विधि रहित साधना त्यागा हुआ भक्त
(केवलम्) केवल (शारीरम्) हठ योग न करके शरीर से जो आसानी से होने वाली सहज साधना
तथा शरीर सम्बन्धी (कर्म) संसारिक कर्म तथा शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म
(कुर्वन्) करता हुआ (किल्बिषम्) क्योंकि शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण
अर्थात् पूजा करने वालों को गीता श्लोक 7.12 से 7.15 में राक्षस स्वभाव को धारण
किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म अर्थात्
शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वाले, मूर्ख मेरी भक्ति भी नहीं करते, वे केलव तीनों गुणों
अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी की भक्ति करके उनसे मिलने वाली क्षणिक राहत पर आश्रित रहते हैं। इन्हीं तीनों गुणों अर्थात्
श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी, श्री शिव जी की साधना शास्त्रविधि
रहित कही है इस शास्त्रा विधि रहित साधना को त्याग कर शास्त्रविधि अनुसार भक्ति करता
है। वह पापको (न) नहीं (आप्नोति) प्राप्त होता। यही प्रमाण गीता अध्याय 18 श्लोक
47.48 में भी है। (4.21)
यत्, ज्ञात्वा, न, पुनः, मोहम्, एवम्, यास्यसि, पाण्डव,
येन, भूतानि, अशेषेण, द्रक्ष्यसि, आत्मनि, अथो, मयि ।।4.35।।
अनुवाद:
(यत्) जिस तत्व ज्ञान को (ज्ञात्वा) जानकर (पुनः) फिर तू (एवम्) इस प्रकार (मोहम्)
मोहको (न) नहीं (यास्यसि) प्राप्त होगा तथा (पाण्डव) हे अर्जुन! (येन) जिस ज्ञानके
द्वारा तू (भूतानि) प्राणियोंको (अशेषेण) पूर्ण रूपसे (आत्मनि) पूर्ण परमात्मा जो
आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है उस पूर्ण परमात्मा में (अथो) और पीछे (मयि)
मुझे (द्रक्ष्यसि) देखेगा कि मैं काल हूँ यह जान जाएगा। (4.35)
न, हि, ज्ञानेन, सदृशम्, पवित्राम्, इह, विद्यते,
तत्
स्वयम्, योगसंसिद्धः, कालेन, आत्मनि, विन्दति ।।4.38।।
अनुवाद:
(इह) इस संसारमें (ज्ञानेन) तत्व ज्ञानके (सदृशम्) समान (पवित्राम्) पवित्र करनेवाला
(हि) निःसन्देह कुछ भी (न) नहीं (विद्यते) जान पड़ता (योगसंसिद्धः) उस तत्वदर्शी
संत के द्वारा दिए सत भक्ति मार्ग के द्वारा जिसकी भक्ति कमाई पूर्ण हो चुकी है
(कालेन) समय अनुसार (तत् आत्मनि) आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने वाले उस पूर्ण
परमात्मा को श्लोक 8.8 से 8.10 में वर्णित उल्लेख के आधार से(स्वयम्) अपने आप ही
(विन्दति) प्राप्त कर लेता है। (4.38)
यत्, साङ्ख्यैः, प्राप्यते, स्थानम्, तत्, योगैः, अपि, गम्यते,
एकम्, साङ्ख्यम्, च, योगम्, च, यः, पश्यति, सः, पश्यति ।।5.5।।
अनुवाद:
शास्त्रविधि अनुसार साधना करने से (साङ्ख्यैः) तत्वज्ञानियों द्वारा (यत्) जो (स्थानम्)
स्थान अर्थात् सत्यलोक (प्राप्यते) प्राप्त किया जाता है (योगैः) तत्वदर्शीयों से
उपदेश प्राप्त करके साधारण गृहस्थी व्यक्तियों अर्थात् कर्मयोगियोंद्वारा (अपि) भी
(तत्) वही (गम्यते) सत्यलोक स्थान प्राप्त किया जाता है (च) और इसलिए (यः) जो
पुरुष (साङ्ख्यम्) ज्ञानयोग (च) और (योगम्) कर्मयोगको फलरूपमें (एकम्) एक (पश्यति)
देखता है (सः) वही यथार्थ (पश्यति) देखता है अर्थात् वह वास्तव में भक्ति मार्ग
जानता है (5.5)
विशेष:-
उपरोक्त मंत्र 5.4-5.5 का भावार्थ है कि कोई तो कहता है कि जिसको ज्ञान हो गया है
वही शादी नहीं करवाता तथा आजीवन ब्रह्मचारी रहता है वही पार हो सकता है। वह चाहे घर
रहे, चाहे किसी आश्रम में रहे। कारण वह व्यक्ति कुछ ज्ञान
प्राप्त करके अन्य जिज्ञासुओं को अच्छी प्रकार उदाहरण देकर समझाने लग जाता है। तो
भोली आत्माऐं समझती हैं कि यह तो बहुत बड़ा ज्ञानी हो गया है। यह तो पार है, हमारा गृहस्थियों का नम्बर कहाँ है। कुछ एक कहते हैं कि बाल-बच्चों में रहता
हुआ ही कल्याण को प्राप्त होता है। कारण गृहस्थ व्यक्ति दान-धर्म करता है, इसलिए श्रेष्ठ है। इसलिए कहा है कि वे तो दोनों प्रकार के विचार व्यक्त करने
वाले बच्चे हैं, उन्हें विद्वान मत समझो। वास्तविक ज्ञान तो पूर्ण संत जो
तत्वदर्शी है, वही बताता है कि शास्त्रविधि अनुसार साधना गुरु मर्यादा में
रहकर करने वाले उपरोक्त दोनों ही प्रकार के साधक एक जैसी ही प्राप्ति करते हैं। जो
साधक इस व्याख्या को समझ जाएगा वह किसी की बातों में आकर विचलित नहीं होता।
ब्रह्मचारी रहकर साधना करने वाला भक्त जो अन्य को ज्ञान बताता है, फिर उसकी कोई प्रशंसा कर रहा है कि बड़ा ज्ञानी है, परन्तु तत्व ज्ञान से परिचित जानता है कि ज्ञान तो सतगुरु का बताया हुआ है, ज्ञान से नहीं, नाम जाप व गुरु मर्यादा में रहने से मुक्ति होगी। इसी प्रकार
जो गृहस्थी है वह भी जानता है कि यह भक्त जी भले ही चार मंत्रा व वाणी सीखे हुए है
तथा अन्य इसके व्यर्थ प्रशंसक बने हैं, ये दोनों ही नादान हैं।
मुक्ति तो नाम जाप व गुरु मर्यादा में रहने से होगी, नहीं तो दोनों ही पाप के भागी व भक्तिहीन हो जायेंगे। ऐसा जो समझ चुका है वह
चाहे ब्रह्मचारी है या गृहस्थी दोनों ही वास्तविकता को जानते हैं। उसी वास्तविक
ज्ञान को जान कर साधना करने वाले साधक के विषय में निम्न मंत्रों का वर्णन किया
है।
योगयुक्तः, विशुद्धात्मा, विजितात्मा, जितेन्द्रियः,
सर्वभूतात्मभूतात्मा, कुर्वन्, अपि, न, लिप्यते ।।5.7।।
अनुवाद:
(विजितात्मा) तत्वज्ञान तथा सत्य भक्ति से जिसका मन संशय रहित है, (जितेन्द्रियः) इन्द्री जीता हुआ (विशुद्धात्मा) पवित्र आत्मा और
(सर्वभूतात्मभूतात्मा) सर्व प्राणियों के मालिक की सत्यसाधना से सर्व प्राणियों को
आत्मा रूप में एक समझकर तत्वज्ञान को प्राप्त प्राणी संसार में रहता हुआ
(योगयुक्तः) सत्य साधना में लगा हुआ (कुर्वन्) सांसारिक कर्म करता हुआ (अपि) भी (न, लिप्यते) लिप्त नहीं होता अर्थात् सन्तान व सम्पत्ति में आसक्त नहीं होता। क्योंकि
उसे तत्वज्ञान से ज्ञान हो जाता है कि यह सन्तान व सम्पति अपनी नहीं है। जैसे कोई
व्यक्ति
किसी होटल में रह रहा हो, वहाँ के नौकरों व अन्य
सामान जैसे टी.वी., सोफा सेट, दूरभाष, चारपाई व जिस कमरे में रह रहा है को अपना नहीं समझता उस व्यक्ति को पता होता
है कि ये वस्तुऐं मेरी नहीं हैं। इसलिए उन से द्वेष भी नहीं होता तथा लगाव भी नहीं
बनता तथा अपने मूल उद्देश्य को नहीं भूलता। इसलिए जिस घर में हम रह रहे हैं, इस सर्व सम्पत्ति व सन्तान को अपना न समझ कर प्रेम पूर्वक रहते हुए प्रभु
प्राप्ति की लगन लगाए रखें। (5.7)
न, आदत्ते, कस्यचित्, पापम्, न, च, एव, सुकृतम्, विभुः,
अज्ञानेन, आवृतम्, ज्ञानम्, तेन, मुह्यन्ति, जन्तवः ।।5.15।।
अनुवाद:
(विभुः) पूर्ण परमात्मा (न) न (कस्यचित्) किसीके (पापम्) पाप का (च) और (न) न
किसीके (सुकृतम्) शुभकर्मका (एव) ही (आदत्ते) प्रति फल देता है अर्थात् निर्धारित
किए नियम अनुसार फल देता है किंतु (अज्ञानेन) अज्ञानके द्वारा (ज्ञानम्) ज्ञान (आवृतम्)
ढका हुआ है (तेन) उसीसे (जन्तवः) तत्वज्ञान हीनता के कारण जानवरों तुल्य सब
अज्ञानी मनुष्य (मुह्यन्ति) मोहित हो रहे हैं अर्थात् स्वभाववश शास्त्रविधि रहित
भक्ति कर्म व सांसारिक कर्म करके क्षणिक सुखों में आसक्त हो रहे हैं। जो साधक
शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति कर्म करते हैं उनके पाप को प्रभु क्षमा कर देता है
अन्यथा संस्कार ही वर्तता है अर्थात् प्राप्त करता है। (5.15)
इसी का विस्तृत
विवरण पवित्रा गीता अध्याय 16 व 17 में देखें।
भावार्थ:-
श्लोक 5.14-5.15 में तत्व ज्ञानहीनत व्यक्तियों को जन्तवः अर्थात् जानवरों तुल्य
कहा है क्योंकि तत्वज्ञान के बिना पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता पूर्ण मोक्ष बिना परम
शान्ति नहीं हो सकती इसलिए कहा है कि पूर्ण परमात्मा ने जब सतलोक में सृष्टि रची
थी उस समय किसी को कोई कर्म आधार बना कर उत्पत्ति नहीं की थी। सत्यलोक में सुन्दर
शरीर दिया था जो कभी विनाश नहीं होता। परन्तु प्रभु ने कर्म फल का विद्यान अवश्य
बनाया था। इसलिए सर्व प्राणी अपने स्वभाववश कर्म करके सुख व दुःख के भोगी होते
हैं। जैसे हम सर्व आत्माऐं सत्यलोक में पूर्ण ब्रह्म परमात्मा(सतपुरुष) द्वारा
अपने मध्य से शब्द शक्ति से उत्पन्न किए। वहाँ सत्यलोक में हमें कोई कर्म नहीं
करना था तथा सर्व सुख उपलब्ध थे। हम स्वयं अपने स्वभाव वश होकर ज्योति निरंजन (ब्रह्म-काल)
पर आसक्त हो कर अपने सुखदाई प्रभु से विमुख हो गए। उसी का परिणाम यह निकला कि अब
हम कर्म बन्धन में स्वयं ही बन्ध गए। अब जैसे कर्म करते हैं, उसी का फल निर्धारित नियमानुसार ही प्राप्त कर रहे हैं। जो साधक शास्त्र
अनुकूल साधना करता है उसके पाप को पूर्ण परमात्मा क्षमा करता है अन्यथा संस्कार ही
वर्तता है अर्थात् संस्कार ही प्राप्त करता है।
नीचे के मंत्र 5.16 से 5.28 तक शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म तथा मर्यादा में
रहकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त कर सकते हैं तथा पूर्ण प्रभु पाप क्षमा कर देता
है। इसलिए कर्तव्य कर्म अर्थात् करने योग्य भक्ति व संसारिक कर्म करता हुआ ही
पूर्ण मुक्त होता है।
ज्ञानेन, तु, तत्, अज्ञानम्, येषाम्, नाशितम्, आत्मनः,
तेषाम्, आदित्यवत्, ज्ञानम्, प्रकाशयति, तत्परम् ।।5.16।।
अनुवाद:
(तु) दूसरी ओर (येषाम्) जिनका (अज्ञानम्) अज्ञान (आत्मनः) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा
का अभेद साथी है इसलिए आत्मा कहा जाता है उस पूर्ण परमात्मा के (तत् ज्ञानेन) तत्वज्ञान
से (नाशितम्) नष्ट हो गया है (तेषाम्) उनका वह (ज्ञानम्) तत्वज्ञान (तत्परम्) उस
पूर्ण परमात्मा को (आदित्यवत्) सूर्य के सदृश (प्रकाशयति) प्रकाश कर देता है
अर्थात् अज्ञान रूपी अंधेरा हटा देता है। (5.16)
इह, एव, तैः, जितः, सर्गः, येषाम्, साम्ये, स्थितम्, मनः,
निर्दोषम्, हि, समम्, ब्रह्म, तस्मात्, ब्रह्मणि, ते, स्थिताः ।।5.19।।
अनुवाद:
(एव) वास्तव में (येषाम्) जिनका (मनः) मन (साम्ये) समभावमें (स्थितम्) स्थित है (तैः)
उनके द्वारा (इह) इस जीवित अवस्थामें (सर्गः) सम्पूर्ण संसार (जितः) जीत लिया गया
है अर्थात् वे मनजीत हो गए हैं (हि) निसंदेह वह (निर्दोषम्) पाप रहित साधक
(ब्रह्म) परमात्मा (समम्) सम है अर्थात् निर्दोंष आत्मा हो गई हैं (तस्मात्) इससे
(ते) वे (ब्रह्मणि) पूर्ण परमात्मामें ही (स्थिताः) स्थित हैं। पाप रहित आत्मा तथा
परमात्मा के बहुत से गुण समान है जैसे अविनाशी, राग, द्वेष रहित, जन्म मृत्यु रहित, स्वप्रकाशित भले ही शक्ति में बहुत अन्तर है। (5.19)
बाह्यस्पर्शेषु, असक्तात्मा, विन्दति, आत्मनि, यत्, सुखम्,
सः, ब्रह्मयोगयुक्तात्मा, सुखम्, अक्षयम्, अश्नुते।।5.21।।
अनुवाद:
(बाह्यस्पर्शेषु) बाहरके विषयोंमें (असक्तात्मा) आसक्तिरहित साधक को (आत्मनि) अपने
आप में (यत्) जो सुमरण (सुखम्) आनन्द(विन्दति) प्राप्त होता है (सः) वह
(ब्रह्मयोगयुक्तात्मा) परमात्माके अभ्यास योगमें अभिन्नभावसे स्थित भक्त आत्मा
(अक्षयम्) कभी समाप्त न होने वाले (सुखम्) आनन्दका (अश्नुते) अनुभव करता है।
अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। (5.21)
यः, अन्तःसुखः, अन्तरारामः, तथा, अन्तज्र्योतिः, एव, यः,
सः, योगी, ब्रह्मनिर्वाणम्, ब्रह्मभूतः, अधिगच्छति ।।5.24।।
अनुवाद:
(यः) जो पुरुष (एव) निश्चय करके (अन्तःसुखः) अन्तःकरण में ही सुखवाला है (अन्तरारामः)
पूर्ण परमात्मा जो अन्तर्यामी रूप में आत्मा के साथ है उसी अन्तर्यामी परमात्मा
में ही रमण करनेवाला है (तथा) तथा (यः) जो (अन्तज्र्योतिः) अन्तः करण प्रकाश वाला
अर्थात् सत्य भक्ति शास्त्रा ज्ञान अनुसार करता हुआ मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता
(सः) वह (ब्रह्मभूतः) परमात्मा जैसे गुणों युक्त (योगी) भक्त (ब्रह्मनिर्वाणम्)
शान्त ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्माको (अधिगच्छति) प्राप्त होता है। (5.24)
उद्धरेत्, आत्मना, आत्मानम्, न, आत्मानम्, अवसादयेत्,
आत्मा, एव, हि, आत्मनः, बन्धुः, आत्मा, एव, रिपुः, आत्मनः ।।6.5।।
अनुवाद:
(आत्मना) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है के तत्वज्ञान को ध्यान
में रखते हुए शास्त्र अनुकूल साधना से अपने द्वारा (आत्मानम्) अपनी आत्माका
(उद्धरेत्) उद्धार करे और (आत्मानम्) अपनेको (न अवसादयेत्) बर्बाद न करे (हि)
क्योंकि (आत्मा) शास्त्र अनुकूल साधक को पूर्ण परमात्मा विशेष लाभ प्रदान करता है
वही प्रभु आत्मा के साथ अभेद रूप में रहता है, इसलिए वह आत्म रूप परमात्मा (एव) वास्तव में (आत्मनः) आत्माका (बन्धुः) मित्रा
है और (आत्मा) शास्त्रा विधि को त्याग कर मनमाना आचरण करने से जीवात्मा (एव)
वास्तव में (आत्मनः) स्वयं का (रिपुः) शत्रु है। (6.5)
बन्धुः, आत्मा, आत्मनः, तस्य, येन, आत्मा, एव, आत्मना, जितः,
अनात्मनः, तु, शत्रुत्वे, वर्तेत, आत्मा, एव, शत्रुवत् ।।6.6।।
अनुवाद:
(आत्मनः) जो आत्मा शास्त्रानुकूल साधना करता है (तस्य) उसका (बन्धुः आत्मा) पूर्ण
परमात्मा ही साथी है (येन) जिस कारण से (एव) वास्तव में (आत्मना) शास्त्रा अनुकूल
साधक की आत्मा के साथ पूर्ण परमात्मा की शक्ति विशेष कार्य करती है जैसे बिजली का
कनेक्शन लेने पर मानव शक्ति से न होने वाले कार्य भी आसानी से हो जाते हैं। ऐसे पूर्ण
परमात्मा से (आत्मा) जीवात्मा की (जितः) विजय होती है अर्थात् सर्व कार्य सिद्ध
तथा सर्व सुख प्राप्त होता है तथा परमगति को अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करता है
तथा मन व इन्द्रियों पर भी वही विजय प्राप्त करता है। (तू) परन्तु इसके विपरीत जो
शास्त्रा अनुकूल साधना नहीं करते उनकी को पूर्ण प्रभु का विशेष सहयोग प्राप्त नहीं
होता, वह केवल कर्म संस्कार ही प्राप्त करता रहता है इसलिए (अनात्मनः)
पूर्ण प्रभु के सहयोग रहित जीवात्मा (शत्रुत्वे) स्वयं दुश्मन जैसा (वर्तेत)
व्यवहार करता है (एव) वास्तव में वह साधक (आत्मा) अपना ही (शत्रुवत्) शत्रु तुल्य
है अर्थात् शास्त्रविधि को त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजायें करने वाले
को न तो सुख प्राप्त होता है न ही कार्य सिद्ध होता है, न परमगति ही प्राप्त होती है, प्रमाण पवित्र गीता मंत्र 16.23-16.24
(6.6)
जितात्मनः, प्रशान्तस्य, परमात्मा, समाहितः,
शीतोष्णसुखदुःखेषु, तथा, मानापमानयोः ।।6.7।।
अनुवाद:
उपरोक्त श्लोक 6.6 में जिस विजयी आत्मा का विवरण है उसी से सम्बन्धित है कि वह
(जितात्मनः) परमात्मा के कृप्या पात्र विजयी आत्मा अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना
करने से प्रभु से सर्व सुख व कार्य सिद्धि प्राप्त हो रही है वह (प्रशान्तस्य)
पूर्ण संतुष्ट साधक (परमात्मा) पूर्ण प्रभु के ऊपर (समाहितः) पूर्ण रूपेण आश्रित
है अर्थात् उसको किसी अन्य से लाभ की चाह नहीं रहती। वह तो (शितोष्ण) सर्दी व
गर्मी अर्थात् (सुख दुःखेषु) सुख व दुःख में (तथा) तथा (मान-अपमानयोः) मान व अपमान
में भी प्रभु की इच्छा जान कर ही निश्चिंत रहता है। (6.7)
योगी, युञ्जीत, सततम्, आत्मानम्, रहसि, स्थितः,
एकाकी, यतचित्तात्मा, निराशीः, अपरिग्रहः ।।6.10।।
अनुवाद:
(यतचित्तात्मा) मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें रखनेवाला (निराशीः) आशारहित और
(अपरिग्रहः) संग्रहरहित (योगी) साधक (एकाकी) अकेला ही (रहसि) एकान्त स्थानमें रहता
है तथा (स्थितः) स्थित होकर (आत्मानम्) आत्माको (सतत्म) निरन्तर परमात्मामें (यञ्जीत)
लगावे। (6.10)
युञ्जन्, एवम्, सदा, आत्मानम्, योगी, नियतमानसः,
शान्तिम्, निर्वाणपरमाम्, मत्संस्थाम्, अधिगच्छति ।।6.15।।
अनुवाद:
(एवम्) इस प्रकार (सदा) निरन्तर (नियतमानसः) मेरे द्वारा उपरोक्त हठयोग बताया गया
है उस के अनुसार मन को वश में करके (आत्मानम्) स्वयं को परमात्मा के (युञ्जन्) साधना
में लगाता हुआ (मत्संस्थाम्) जैसे कर्म करेगा वैसा ही फल प्राप्त होने वाले नियमित
सिद्धांत के आधार से मेरे ही ऊपर आश्रित रहने वाला (योगी) साधक (निवार्ण परमाम्)
अति शान्त अर्थात् समाप्त प्रायः (शान्तिम्) शान्ति को (अधिगच्छति) प्राप्त होता
है अर्थात् मेरे से मिलने वाली नाम मात्रा मुक्ति को प्राप्त होता है। अपनी मुक्ति
को गीता श्लोक 7.18 में स्वयं ही अति अश्रेष्ठ कहा है। गीता श्लोक 6.23 में
अनिर्वणम् का अर्थात् न उकताए अर्थात् न मुर्झाए किया है इसलिए निर्वाणम् का अर्थ
मुर्झायी हुई अर्थात् मरी हुई नाम मात्रा की शान्ति हुई। (6.15)
विशेष:-
उपरोक्त गीता श्लोक 6.10 से 6.15 में एक स्थान पर विशेष आसन पर विराजमान होकर हठ करके
ध्यान व दृष्टि नाक के अग्र भाग पर लगाने आदि की सलाह दी है तथा गीता श्लोक 3.5 से
3.9 तक इसी को मना किया है।
(श्लोक 6.16
से 6.30 तक पूर्ण परमात्मा के विषय में ज्ञान है)
यथा, दीपः, निवातस्थः, न, इंगते, सा, उपमा, स्मृता,
योगिनः, यतचित्तस्य, युज्तः, योगम्, आत्मनः।।6.19।।
अनुवाद:
(यथा) जिस प्रकार (निवातस्थः) वायुरहित स्थानमें स्थित (दीपः) दीपक (न,इगंते)
चलायमान नहीं होता (सा) वैसी ही (उपमा) उपमा (आत्मनः) शास्त्रा अनुकूल साधक आत्मा
के साथ अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा अर्थात् पूर्ण ब्रह्म की (योगम्) साधना
में (युज्तः) लगे हुए (यत) प्रयत्न शील (योगिनः) साधक के (चित्तस्य) चितकी (स्मृता)
सुमरण स्थिति कही गयी है। (6.19)
यत्रा, उपरमते, चित्तम्, निरुद्धम्, योगसेवया,
यत्रा, च, एव, आत्मना, आत्मानम्, पश्यन्, आत्मनि, तुष्यति।।6.20।।
अनुवाद:
(चित्तम्) चित (निरुद्धम्) निरुद्ध (योगसेवया) योगके अभ्याससे (यत्रा) जिस अवस्थामें
(उपरमते) ऊपर बताए मत - विचारों पर आधारित हो कर उपराम हो जाता है (च) और (यत्रा)
जिस अवस्थामें (आत्मना) शास्त्रा अनुकूल साधक जीवात्मा द्वारा (आत्मानम्) आत्मा के
साथ रहने वाले पूर्ण परमात्मा को सर्वत्रा (पश्यन्) देखकर (एव) ही वास्तव में
(आत्मनि) आत्मा से अभेद पूर्ण परमात्मा में (तुष्यति) संतुष्ट रहता है अर्थात् वह
डगमग नहीं रहता। (6.20)
यतः, यतः, निश्चरति, मनः, चञ्चलम्, अस्थिरम्,
ततः, ततः, नियम्य, एतत्, आत्मनि, एव, वशम्, नयेत् ।।6.26।।
अनुवाद:
(एतत्) यह (अस्थिरम्) स्थिर न रहनेवाला और (चञ्चलम्) चंचल (मनः) मन (यतः,यतः)
जहाँ-जहाँ (निश्चरति) विचरता है (ततः,ततः) उस उससे (नियम्य)
हटाकर (आत्मनि) शास्त्रा अनुकूल साधक पूर्ण परमात्मा की कृप्या पात्रा आत्मा अपने
पूर्ण प्रभु के सहयोग से (एव) ही (वशम्) मनवश (नयेत्) करे। (6.26)
युज्न्, एवम्, सदा, आत्मानम्, योगी, विगतकल्मषः,
सुखेन, ब्रह्मसंस्पर्शम्, अत्यन्तम्, सुखम्, अश्नुते ।।6.28।।
अनुवाद:
(विगतकल्मषः) पापरहित (योगी) साधक (एवम्) इस प्रकार (सदा) निरन्तर (युज्न्) साधना
करता हुआ (आत्मानम्) अपने समर्पण भाव से(सुखेन) सुखपूर्वक (ब्रह्मसंस्पर्शम्) पूर्ण
परमात्मा के मिलन रूप (अत्यन्तम्) कभी समाप्त न होने वाले (सुखम्) आनन्दका
(अश्नुते) अनुभव करता है अर्थात् पूर्ण मुक्त हो जाता है। (6.28)
सर्वभूतस्थम्, आत्मानम्, सर्वभूतानि, च, आत्मनि,
ईक्षते, योगयुक्तात्मा, सर्वत्रा, समदर्शनः ।।6.29।।
अनुवाद:
(योगयुक्तात्मा) भक्तियुक्त आत्मावाला (सर्वत्रा) सबमें (समदर्शनः) समभावसे देखनेवाला
(आत्मानम्) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा के साथ अभेद रूप में है उसको (सर्वभूतस्थम्) सम्पूर्ण
प्राणियों में स्थित (च) और (सर्वभूतानि) सम्पूर्ण प्राणियों को (आत्मनि) अपने
समान अर्थात् जैसा दुःख व सुख अपने होता है इस दृष्टिकोण से(ईक्षते) देखता है। (6.29)
(श्लोक
नं 6.30-6.31 में अपनी भक्ति वाले साधक की स्थिति बताई है)
आत्मौपम्येन, सर्वत्रा, समम्, पश्यति, यः, अर्जुन,
सुखम्, वा, यदि, वा, दुःखम्, सः, योगी, परमः, मतः।।6.32।।
अनुवाद: (अर्जुन)
हे अर्जुन! (यः) जो योगी (आत्मौपम्येन) शास्त्रा अनुकूल साधना से आत्मा पूर्ण
परमात्मा की कृप्या पात्रा हो जाती है उस पर प्रभु की विशेष कृपा होने से वह स्वयं
भी परमात्मा की उपमा जैसा हो जाता है, इसलिए आत्मा के साथ अभेद
रूप में रहने वाले परमात्मा को (सर्वत्रा) सब जगह तथा सर्व प्राणियों में (समम्)
सम (पश्यति) देखता है (वा) और (सुखम्) सुख (यदि,वा) अथवा
(दुःखम्) दुःखको भी सबमें सम देखता है (सः) वह (मतः) शास्त्रानुकूल आचरण वाला (योगी)
योगी (परमः) श्रेष्ठ है। (6.32)
मनुष्याणाम्, सहस्त्रोषु, कश्चित्, यतति, सिद्धये,
यतताम्, अपि, सिद्धानाम्, कश्चित्, माम्, वेत्ति, तत्त्वतः ।।7.3।।
अनुवाद:
(सहस्त्रोषु) हजारों (मनुष्याणाम्) मनुष्योंमें (कश्चित्) कोई एक (सिद्धये) प्रभु प्राप्तिके
लिये (यतति) यत्न करता है (यतताम्) यत्न करनेवाले (सिद्धानाम्) योगियोंमें (अपि)
भी (कश्चित्) कोई एक (माम्) मुझको (तत्त्वतः) तत्वसे अर्थात् यथार्थरूपसे (वेत्ति)
जानता है। (7.3)
केवल
हिन्दी अनुवाद:हजारों मनुष्योंमें कोई एक प्रभु प्राप्तिके लिये यत्न करता है यत्न
करनेवाले योगियोंमें भी कोई एक मुझको तत्वसे अर्थात् यथार्थरूपसे जानता है।
भावार्थ:-
इस श्लोक 3 का भावार्थ यह है कि वेद ज्ञान दाता प्रभु कह रहा है कि हजार व्यक्तियों
में कोई एक परमात्मा की साधना करता है। उन साधना करने वालों में कोई एक ही मुझे तत्व
से जानता है। काल भगवान कह रहा है कि परमात्मा को भजने वाले बहुत कम है। जो साधना कर
रहे हैं वे मनमाना आचरण(पूजा) अर्थात् शास्त्राविधि रहित पूजा करते है जो व्यर्थ
है। (गीता श्लोक 16.23 में) जो मुझे भजते हैं उन में भी कोई एक ही वेदों अनुसार
अर्थात् वेदों को अपनी बुद्धि से समझ कर मेरी साधना करता है। वह अन्य देवी-देवता
आदि की पूजा नहीं करता केवल एक मुझ ब्रह्म
की पूजा करता है वह ज्ञानी आत्मा है। इस श्लोक 7.3 का सम्बन्ध अध्याय श्लोक 7.17
से 7.19 तक से है।
उदाराः, सर्वे, एव, एते, ज्ञानी, तु, आत्मा, एव, मे, मतम्,
आस्थितः, सः, हि, युक्तात्मा, माम्, एव, अनुत्तमाम्, गतिम्।।7.18।।
अनुवाद:
(हि) क्योंकि (मे) मेरे (मतम्) विचार में (एते) ये (सर्वे,एव) सभी
ही (ज्ञानी) ज्ञानी (आत्मा) आत्मा (उदाराः) उदार हैं (तु) परंतु (सः) वह (माम्)
मुझमें (एव) ही (युक्तात्मा) लीन आत्मा (अनुत्तमाम्) मेरी अति घटिया (गतिम्)
मुक्तिमें (एव) ही (आस्थितः) आश्रित हैं। (7.18)
केवल
हिन्दी अनुवाद: क्योंकि मेरे विचार में ये सभी ही ज्ञानी आत्मा उदार हैं परंतु वह मुझमें
ही लीन आत्मा मेरी अति घटिया मुक्तिमें ही आश्रित हैं। (7.18)
गीता
श्लोक 7.16 से 7.18 का भावार्थ है कि मेरी अर्थात् ब्रह्म की भक्ति भी चार प्रकार के
भक्त करते हैं 1. आत्र्त: जो संकट निवार्ण के लिए वेद मंत्रों से ही अनुष्ठान करते
हैं 2. अर्थार्थी: जो धन लाभ के लिए वेद मंत्रों से ही अनुष्ठान आदि करता है 3.
जिज्ञासु: जो ज्ञान प्राप्ति की इच्छा से वेदों का पठन-पाठन करके ज्ञान संग्रह कर
लेता है फिर वक्ता बनकर जीवन व्यर्थ कर जाता है 4. ज्ञानी: जिस साधक ने वेदों को
पढ़ा तथा जाना कि मनुष्य जीवन केवल प्रभु प्राप्ति के लिए ही मिला है तथा एक पूर्ण
परमात्मा की भक्ति से ही पूर्ण होगा। तत्वदर्शी संत जो गीता श्लोक 4.34 मे वर्णित
है न मिलने से ब्रह्म को ही पूर्ण परमात्मा मान कर काल (ब्रह्म) साधना करते रहे जो
अति अनुत्तम कही है अर्थात् ब्रह्म साधना भी अश्रेष्ठ है।
प्रश्न:-
आपने गीता अध्याय 7 श्लोक 18 के अनुवाद में अर्थ का अनर्थ किया है ‘‘अनुत्तमाम्’’ का अर्थ अश्रेष्ठ किया है। जब कि समास में अनुत्तम का अर्थ
अति उत्तम होता है जिस से उत्तम कोई और न हो उस के विषय में समास में अनुत्तम का
अर्थ अति उत्तम होता है। अन्य गीता अनुवाद कर्ताओं ने सही अर्थ किया है अनुत्तम का
अर्थ अति उत्तम किया है।
उत्तर:-
मैं आप की इस बात को सत्य मानकर आप से प्रार्थना करता हूँ कि ‘‘गीता ज्ञान दाता अपनी साधना के विषय में गीता अध्याय 7 श्लोक 16 से 18 में बता
रहे हैं। यदि गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अपनी साधना व गति को अनुत्तम कह रहे हैं।
जिस का भावार्थ आप के समास के अनुसार यह हुआ कि गीता ज्ञान दाता की गति से उत्तम
अन्य कोई गति नहीं अर्थात् मोक्ष लाभ नहीं।
गीता
ज्ञान दाता स्वयं गीता अध्याय 18 श्लोक 62 व अध्याय 15 श्लोक 4 में किसी अन्य परमेश्वर
की शरण में जाने को कह रहे हैं। उसी की कृपा से परम शान्ति व शाश्वत स्थान सदा रहने
वाला मोक्ष स्थल अर्थात् सत्यलोक प्राप्त होगा। अपने विषय में भी कहा है कि मैं भी
उसी की शरण हूँ। उसी पूर्ण परमात्मा की भक्ति करनी चाहिए तथा कहा है कि उस
परमेश्वर के परमपद (सत्यलोक) को प्राप्त करना चाहिए जहाँ जाने के पश्चात् साधक
लौटकर इस संसार में कभी नहीं आते अर्थात् उनका जन्म मृत्यु सदा के लिए समाप्त हो
जाता है।
गीता
ज्ञान दाता ने अपने से अन्य परमात्मा के विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 46ए61. 62ए64ए66
अध्याय 15 श्लोक 4,16.17, अध्याय 13 श्लोक 12 से 17, 22 से 24, 27.28ए30.31ए34 अध्याय 5 श्लोक 6.10ए13 से 21 तथा 24.25.26
अध्याय 6 श्लोक 7ए19ए20ए25ए26.27 अध्याय 4 श्लोक 31.32, अध्याय 8 श्लोक 3ए8 से 10ए17 से 22, अध्याय 7 श्लोक 19 से 29, अध्याय 14 श्लोक 19 आदि.2 श्लोकों में कहा है। इससे सिद्ध हुआ कि गीता ज्ञान
दाता से श्रेष्ठ अर्थात् उत्तम परमात्मा तो अन्य है जैसे गीता अध्याय 15 श्लोक 17
में गीता ज्ञान दाता ने कहा है कि उत्तम पुरूषः तु अन्यः जिसका अर्थ है उत्तम
परमात्मा तो अन्य ही है। इसलिए उस उत्तम पुरूष अर्थात् सर्वश्रेष्ठ परमात्मा की
गति अर्थात् उस से मिलने वाला मोक्ष भी अति उत्तम हुआ। इस से यह भी सिद्ध हुआ कि
उस परमेश्वर अर्थात् पूर्ण परमात्मा की गति गीता ज्ञान दाता वाली गति से उत्तम हुई।
इसलिए गीता ज्ञान दाता वाली गति सर्व श्रेष्ठ नहीं है। अर्थात् जिस से श्रेष्ठ कोई
न हो। यह विशेषण भी गलत सिद्ध हुआ। क्योंकि जब गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ कोई और
परमेश्वर है तो उस की गति भी गीता ज्ञान दाता से श्रेष्ठ है। इससे सिद्ध हुआ कि
गीता अध्याय 7 श्लोक 18 में अनुत्तम का अर्थ अश्रेष्ठ ही न्याय संगत है अर्थात्
उचित है। आप तथा अन्य गीता अनुवाद करताओं ने अर्थ का अनर्थ किया है। जो अनुत्तम का
अर्थ अति उत्तम कहा तथा किया है।
न,
च, मत्स्थानि, भूतानि, पश्य, मे, योगम्, ऐश्वरम्,
भूतभृत्,
न, च, भूतस्थः, मम, आत्मा, भूतभावनः ।।9.5।।
अनुवाद:
(च) और (भूतानि) सब प्राणी (मे) मेरे में (मत्स्थानि) स्थित (न) नहीं हैं (च) और (न) न ही (मम) मेरी (आत्मा) आत्मा (भूतभावनः) जीव उत्पन्न
करने वाला (पश्य) जान वह (ऐश्वरम्) परम शक्ति युक्त पूर्ण परमात्मा (भूतभृत्)
प्राणियों का धारण पोषण करने वाला (योगम्) अभेद सम्बन्ध शक्तिसे (भूतस्थः)
प्राणियों में स्थित है। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 15 श्लोक 16-17 में भी है कि पूर्ण परमात्मा कोई और है,
वह सर्व जगत का पालन-पोषण करता है। यही प्रमाण गीता अध्याय 13 श्लोक 17 अध्याय 18 श्लोक 61 में है कहा है कि पूर्ण परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय
में विशेष रूप से स्थित है। वह पूर्ण परमात्मा अपनी शक्ति से सर्व प्राणियों को
यन्त्रा
की तरह भ्रमण कराता है। (9.5)
त्रौविद्याः,
माम्, सोमपाः, पूतपापाः, यज्ञैः, इष्ट्वा, स्वर्गतिम्, प्रार्थयन्ते,
ते,
पुण्यम्, आसाद्य, सुरेन्द्रलोकम्, अश्नन्ति, दिव्यान्, दिवि, देवभोगान् ।।9.20।।
अनुवाद:
(त्रौविद्याः) तीनों वेदोंमें वर्णित विधि के अनुसार (सोमपाः) भक्ति रूपी अमृत
पीने वाले (पूतपापाः) पुण्य आत्मा (माम्) मुझको (यज्ञैः) यज्ञोंके द्वारा
(इष्ट्वा) इष्ट देव रूपमें पूजकर (स्वर्गतिम्) स्वर्ग की प्राप्ती (प्रार्थयन्ते) चाहते हैं
(ते) वे (पुण्यम्) पुण्योंके फलरूप (सुरेन्द्रलोकम्) इन्द्र के स्वर्गलोक को
(आसाद्य) प्राप्त होकर (दिवि)स्वर्ग में (दिव्यान्)दिव्य (देवभोगान्) देवताओंके
भोगोंको (अश्नन्ति) भोगते हैं। (9.20)
किम्,
पुनः, ब्राह्मणाः, पुण्याः, भक्ताः, राजर्षयः, तथा,
अनित्यम्,
असुखम्, लोकम्, इमम्, प्राप्य, भजस्व, माम् ।।9.33।।
अनुवाद:
पवित्रा गीता बोलने वाला प्रभु कह रहा है कि उपरोक्त श्लोक 32 में वर्णित पापी आत्मा भी मेरे वाली परमगति को प्राप्त कर
सकते हैं तो (पुनः) फिर (ब्राह्मणाः) ब्राह्मणों (तथा) और (राजर्षयः) राजर्षि
(पुण्या) पुण्यशील (भक्ताः) भक्तजनों के लिए (किम्) क्या कठिन है। (माम्) मुझ ब्रह्म के (इमम्) इस (अनित्यम्) नाश्वान (असुखम्)
दुःखदाई (लोकम्) लोकों (प्राप्य) प्राप्त होकर अर्थात् जन्म लेकर (भजस्व) उस पूर्ण
परमात्मा का भजन कर क्योंकि गीता अध्याय 8 श्लोक 8 से 10ए1 व 3 तथा 20 से 22 में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति के लिए विस्तार से कहा है
तथा अध्याय 8 श्लोक 5.7 व 13 में अपने विषय में कहा है। यहाँ भी संकेतिक संदेश उस पूर्ण
परमात्मा
के विषय
में है तथा निम्न श्लोक 34 में अपने विषय में कहा है कि यदि मेरी शरण में रहना है तथा
जन्म-मृत्यु का कष्ट उठाते रहना है तो- (9.33)
विशेष:-
इसलिए गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में प्रमाण दिया है कि उस परमात्मा की शरण में जा,
उसकी कृप्या से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम धाम को
प्राप्त होगा। निम्न श्लोक में कहा है कि मेरे वाली परमगति चाहिए तो-
मन्मनाः,
भव, मद्भक्तः, मद्याजी, माम्, नमस्कुरु,
माम्,
एव, एष्यसि, युक्त्वा, एवम्, आत्मानम्, मत्परायणः ।। 9.34।।
अनुवाद:
(मन्मनाः) मेरे में स्थिर मन वाला (मद्याजी) मेरा शास्त्रानुकूल पूजक (मद्भक्तः) मतानुसार
अर्थात् मेरे बताए अनुसार साधक (भव) बन (माम्) मुझे (नमस्कुरु) प्रणाम कर। (एवम्) इस
प्रकार (आत्मानम्) आत्मासे (मत्परायणः) मेरी शरण होकर शास्त्रानुकूल साधनमें
(युक्त्वा) संलग्न होकर (एव) ही (माम्) मुझ से(एष्यसि) लाभ प्राप्त करेगा। (9.34)
भावार्थ:--
गीता अध्याय 4 श्लोक 34ए अध्याय 2 श्लोक 12ए अध्याय 10 श्लोक 2 अध्याय 8 श्लोक 5 से 10 व अध्याय 8 श्लोक 18 से 20 में कहा है कि मेरे तथा तेरे बहुत जन्म हो चुके हैं। आगे भी
हम सब जन्मते-मरते रहेगें। मेरी उत्पत्ति को ऋषि जन व देवता भी नहीं जानते। मेरी
साधना करेगा तो युद्ध भी कर तथा मेरी भक्ति भी कर। कृप्या पाठक जन विचार करें:--
युद्ध करने वाले को शान्ति कहाँ। इसीलिए गीता अध्याय 15 श्लोक 4,
अध्याय 18 श्लोक 62ए66 में परम् शान्ति के लिए तथा शाश्वत् (सदा रहने वाले) स्थान
की प्राप्ति के लिए किसी अन्य परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है। जन्म-मृत्यु
वाले को शान्ति कहाँ? यदि पूर्ण मुक्त होना है तो उस परमेश्वर की शरण में सर्व
भाव से जा, जिस कारण तू परम शान्ति तथा सत्यलोक अर्थात् सनातन परम धाम
को प्राप्त होगा। उसके लिए तत्वदर्शी संत की तलाश कर,
मैं नहीं जानता(गीता अ. 18 श्लोक 62 तथा अ. 4 श्लोक 34)।
तेषाम्,
एव, अनुकम्पार्थम्, अहम्, अज्ञानजम्, तमः,
नाशयामि,
आत्मभावस्थः, ज्ञानदीपेन, भास्वता ।।10.11।।
अनुवाद:
(अहम्) मैं (एव) ही (तेषाम्) उनके ऊपर (अनुकम्पार्थम्) कृप्या करनेके लिये (अज्ञानजम्) अज्ञानसे उत्पन्न (तमः) अन्धकारको (नाशयामि)
नष्ट करता हूँ। (आत्मभावस्थः) प्रेतवत् प्रवेश करके आत्मा की तरह शरीर में स्थापित
होकर जैसे जीवात्मा बोलती है। उसी भाव से अर्थात् आत्म भाव से आत्मा में स्थित
होकर (ज्ञानदीपेन) ज्ञानरूप दीपक (भास्वता) प्रकाशमय करता हूँ। (10.11)
अहम्,
आत्मा, गुडाकेश, सर्वभूताशयस्थितः,
अहम्,
आदिः, च, मध्यम्, च, भूतानाम्, अन्तः, एव, च ।।10.20।।
अनुवाद:
(गुडाकेश) हे अर्जुन! (अहम्) मैं (सर्वभूताशयस्थितः) सब प्राणियों में स्थित (आत्मा) आत्मा हूँ अर्थात् आत्मा काल इशारे पर नाचती है
इसलिए कहा है (च) तथा (भूतानाम्) सम्पूर्ण प्राणियों का (आदिः) आदि,
(मध्यम्) मध्य (च) और
(अन्तः) अन्त (च) भी (अहम्) मैं (एव) ही हूँ। (10.20)
एवम्,
एतत्, यथा, आत्थ, त्वम्, आत्मानम्, परमेश्वर,
द्रष्टुम्,
इच्छामि, ते, रूपम्, ऐश्वरम्, पुरुषोत्तम ।।11.3।।
अनुवाद:
(परमेश्वर) हे परमेश्वर! (त्वम्) आप (आत्मानम्) अपनेको (यथा) जैसा (आत्थ) कहते हैं
(एतत्) यह ठीक (एवम्) ऐसा ही है परंतु (पुरुषोत्तम) हे पुरुषोत्तम्! (ते) आपके
(ऐश्वरम्, रूपम्)
ज्ञान, ऐश्वर्य, याक्ति, बल, वीर्य और तेजसे युक्त ईश्वरीय-रूपको मैं प्रत्यक्ष
(द्रष्टुम्) देखना (इच्छामि) चाहता हूँ। (11.3)
ध्यानेन,
आत्मनि, पश्यन्ति, केचित्, आत्मानम्, आत्मना।
अन्ये,
साङ्ख्येन, योगेन, कर्मयोगेन, च, अपरे ।।13.24।।
अनुवाद:
(आत्मानम्) परमात्माको (केचित्) कितने ही मनुष्य तो (आत्मना) अपनीदिव्य दृष्टि से
(ध्यानेन) ध्यानके द्वारा (आत्मनि) अपने शरीर में अपने अन्तःकरण में (पश्यन्ति)
देखते हैं, (अन्ये) अन्य कितने ही (साड्ख्येन योगेन) ज्ञानयोग के द्वारा
(च) और (अपरे) दूसरे कितने ही (कर्मयोगेन) कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् अनुभव करते
हैं। गीता अध्याय 5 श्लोक 4.5 में भी प्रमाण है। (13.24)
समम्,
पश्यन्, हि, सर्वत्रा, समवस्थितम्, ईश्वरम्।
न,
हिनस्ति, आत्मना, आत्मानम्, ततः, याति, पराम्, गतिम् ।।13.28।।
अनुवाद:
(हि) क्योंकि (सर्वत्रा) सबमें (समवस्थितम्) सर्वव्यापक (ईश्वरम्) उत्तम पुरूष अर्थात्
परमेश्वरको (समम्) समान (पश्यन्) देखता हुआ (आत्मना) अपनेद्वारा (आत्मानम्) अपनेको
(न हिनस्ति) नष्ट नहीं करता अर्थात् आत्मघात नहीं करता (ततः) इससे वह (पराम्) परम
(गतिम्) गतिको (याति) प्राप्त होता है। (13.28)
प्रकृत्या,
एव, च, कर्माणि, क्रियमाणानि, सर्वशः।
यः,
पश्यति, तथा, आत्मानम्, अकर्तारम्, सः, पश्यति ।।13.29।।
अनुवाद:
(च) और (यः) जो साधक (कर्माणि) सम्पूर्ण कर्मोंको (सर्वशः) सब प्रकारसे (प्रकृत्या) प्रकृतिके द्वारा (एव) ही (क्रियमाणानि) किये
जाते हुए (पश्यति) देखता है (तथा) और (आत्मानम्) परमात्माको (अकर्तारम्) अकत्र्ता देखता है (सः)
वही यथार्थ (पश्यति) देखता है। (13.29)
अनादित्वात्,
निर्गुणत्वात्, परमात्मा, अयम्, अव्ययः।
शरीरस्थः,
अपि, कौन्तेय, न, करोति, न, लिप्यते ।।13.31।।
अनुवाद:
(कौन्तेय) हे अर्जुन! (अनादित्वात्) अनादि होनेसे और (निर्गुणत्वात्) उसकी शक्ति निर्गुण
होनेसे (अयम्) यह (अव्ययः) अविनाशी (परमात्मा) परमात्मा (शरीरस्थः) शरीरमें रहता हुआ
(अपि) भी वास्तवमें (न) न तो (करोति) कुछ करता है और (न) न (लिप्यते) लिप्त ही
होता है। (13.31)
भावार्थ
- श्लोक 31 का भाव है कि जैसे सूर्य दूरस्थ होने से भी जल के घड़े में
दृष्टिगोचर होताहै तथा निर्गुण शक्ति अर्थात् ताप प्रभावित करता रहता है,
इसी प्रकार पूर्ण परमात्मा अपने सत्यलोक में रहते हुए भी
प्रत्येक आत्मा में प्रतिबिम्ब रूप से रहता है। जैसे अवतल लैंस पर सूर्य की किरणें
अधिक ताप पैदा कर देती हैं तथा उत्तल लैंस पर अपना स्वाभाविक प्रभाव ही रखती हैं। इसी
प्रकार शास्त्रा विधि अनुसार साधक अवतल लैंस बन जाता है। जिससे ईश्वरीय शक्ति का अधिक
लाभ प्राप्त करता है तथा शास्त्रा विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने वाला साधक केवल कर्म
संस्कार ही प्राप्त करता है। उसे उत्तल लैंस जानो।
यथा,
सर्वगतम्, सौक्ष्म्यात्, आकाशम्, न, उपलिप्यते।
सर्वत्रा,
अवस्थितः, देहे, तथा, आत्मा, न, उपलिप्यते ।।13.32।।
अनुवाद:
(यथा) जिस प्रकार (सर्वगतम्) सर्वत्रा व्याप्त (आकाशम्) आकाश (सौक्ष्म्यात्)
सूक्ष्म होने के कारण (न, उपलिप्यते) लिप्त नहीं होता (तथा) वैसे ही (देहे) देहमें
घड़े में सूर्य सदृश (सर्वत्रा) सर्वत्रा (अवस्थितः) स्थित (आत्मा) आत्मा सहित
परमात्मा देहके गुणोंसे (न,उपलिप्यते) लिप्त नहीं होता। (13.32)
श्रोत्राम्,
चक्षुः, स्पर्शनम्, च, रसनम्, घ्राणम्, एव, च,
अधिष्ठाय,
मनः, च, अयम्, विषयान्, उपसेवते ।।15.9।।
अनुवाद:
(अयम्) यह परमात्मा - अंश जीव आत्मा (श्रोत्राम्) कान (चक्षुः) आँख (च) और (स्पर्शनम्) त्वचा (च) और (रसनम्) रसना (घ्राणम्) नाक (च) और
(मनः) मनके (अधिष्ठाय) माध्यम से (एव) ही (विषयान्) विषयों अर्थात् शब्द,
स्पर्श, रूप, रस, गंध आदि का (उपसेवते) सेवन करता है। फिर उस का कर्म भोग
जीवात्मा को ही भोगना पड़ता है। (15.9)
उत्क्रामन्तम्,
स्थितम्, वा, अपि, भुञ्जानम्, वा, गुणान्वितम्,
विमूढाः,
न, अनुपश्यन्ति, पश्यन्ति, ज्ञानचक्षुषः ।।15.10।।
अनुवाद:
(विमूढाः) अज्ञानीजन (उत्क्रामन्तम्) अन्त समय में शरीर त्याग कर जाते हुए अर्थात्
शरीर से निकल कर जाते हुए (वा) अथवा (स्थितम्) शरीरमें स्थित (वा) अथवा (भुञ्जानम्)
भोगते हुए (गुणान्वितम्) इन गुणों वाले आत्मा से अभेद रूप में रहने वाले परमात्मा
को (अपि) भी (न,अनुपश्यन्ति) नहीं देखते अर्थात् नहीं जानते (ज्ञानचक्षुषः)
ज्ञानरूप नेत्रोंवाले अर्थात् पूर्ण ज्ञानी (पश्यन्ति) जानते हैं। इसी का प्रमाण गीता अध्याय 2 श्लोक 12 से 23 तक भी है। (15.10)
यतन्तः,
योगिनः, च, एनम्, पश्यन्ति, आत्मनि, अवस्थितम्,
यतन्तः,
अपि, अकृतात्मानः, न, एनम्, पश्यन्ति, अचेतसः ।।15.11।।
अनुवाद:
(यतन्तः) यत्न करनेवाले (योगिनः) योगीजन (आत्मनि) अपने हृदय में (अवस्थितम्) स्थित (एनम्) इस परमात्माको जो आत्मा के साथ
अभेद रूप से रहता है जैसे सूर्य का ताप अपना निर्गुण प्रभाव निरन्तर बनाए रहता है
को (पश्यन्ति) देखता है (च) और (अकृतात्मानः) जिन्होंने अपने अन्तःकरणको शुद्ध नहीं किया
अर्थात् शास्त्रा विधि अनुसार भक्ति कम्र न करने वाले (अचेतसः) अज्ञानीजन तो
(यतन्तः) यत्न करते रहनेपर (अपि) भी (एनम्) इसको (न,
पश्यन्ति) नहीं देखते। (15.11)
विशेष:-
श्लोक 12 से 15 तक पवित्रा गीता बोलने वाला ब्रह्म अर्थात् क्षर पुरुष
अपनी स्थिति बता रहा है कि मेरे अन्तर्गत अर्थात् इक्कीस ब्रह्मण्डों में सर्व
प्राणियों का आधार हूँ। इन ब्रह्मण्डों में जितने भी प्रकाश हैं उन्हें मेरे ही जान। मैं ही वेदों को बोलने वाला
ब्रह्म हूँ। वेदों व वेदान्त का कत्र्ता मैं ही हूँ। चारों वेदों को मैं ही जानता
हूँ तथा चारों वेदों में मेरी ही भक्ति विधि का वर्णन है।
विचार
करें - जैसे उलटा लटका हुआ संसार रूपी वृक्ष है। इसकी मूल तो आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात्
पूणब्रह्म है तथा तना अक्षर पुरुष अर्थात् परब्रह्म है,
डार क्षर पुरुष अर्थात् यह गीता व वेदों को बोलने वाला
ब्रह्म (काल) है। तीनों गुण रूप(रजगुण ब्रह्मा जी,
सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिवजी) शाखाऐं हैं तथा पत्ते रूप अन्य प्राणी हैं,
पेड़ को आहार मूल (जड़) से प्राप्त होता है। फिर वह आहार
तना में जाता है, तना से डार में तथा डार से उन शाखाओं में जाता है जो उस डार
पर आधारित हैं। ऐसे ही शाखाओं से पत्तों तक आहार जाता है,
परन्तु वास्तव में सर्व का पालन कर्ता तथा वास्तव में
अविनाशी परमेश्वर परमात्मा भी इन दोनों (क्षर पुरुष तथा अक्षर पुरुष) से अन्य परम
अक्षर ब्रह्म है जो गीता अध्याय 8 श्लोक 1 तथा 3 में वर्णन है तथा विशेष वर्णन इन निम्न श्लोक 16,17 में व इसी अध्याय 15 के ही 1 से 4 तक में है। इसी अध्याय 15 के श्लोक 15 में कहा है कि मैं प्राणियों के हृदय में स्थित हूँ। यह
काल महाशिव रूप में हृदय कमल में दिखाई देता है। गीता अध्याय 13 श्लोक 17 में कहा है वह पूर्ण परमात्मा सर्व प्राणियों के हृदय में
विशेष रूप से स्थित है तथा अध्याय 18 श्लोक 61 में भी यही प्रमाण है। इस प्रकार इस मानव शरीर वह ब्रह्म तथा
पूर्ण परमात्मा व ब्रह्मा विष्णु महेश का भी इसी शरीर में दर्शन होता है। परन्तु
सर्व परमात्मा दूरस्थ होकर शरीर में अलग.2 स्थानों पर दिखाई देते है।
अहंकारम्,
बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, च, संश्रिताः,
माम्,
आत्मपरदेहेषु, प्रद्विषन्तः, अभ्यसूयकाः ।।16.18।।
अनुवाद:
(अहंकारम्) अहंकार (बलम्) बल (दर्पम्) घमण्ड (कामम्) कामना और (क्रोधम्) क्रोधादिके
(संश्रिताः) परायण (च) और (अभ्यसूयकाः) दूसरोंकी निन्दा करनेवाले (आत्मपरदेहेषु) प्रत्येक
शरीर में परमात्मा आत्मा सहित तथा (माम्) मुझसे (प्रद्विषन्तः) द्वेष करनेवाले
होते हैं। (16.18)
त्रिविधम्,
नरकस्य, इदम्, द्वारम्, नाशनम्, आत्मनः,
कामः
क्रोधः, तथा, लोभः, तस्मात्, एतत्, त्रायम्, त्यजेत् ।।16.21।।
अनुवाद:
(कामः) काम (क्रोधः) क्रोध (तथा) तथा (लोभः) लोभ (इदम्) ये (त्रिविधम्) तीन प्रकारके
(नरकस्य) नरकके (द्वारम्) द्वार (आत्मनः) आत्माका (नाशनम्) नाश करनेवाले अर्थात् आत्मघाती
हैं। (तस्मात्) अतएव (एतत्) इन (त्रायम्) तीनोंको (त्यजते्) त्याग देना चाहिये। (16.21)
एतैः,
विमुक्तः, कौन्तेय, तमोद्वारैः, त्रिभिः, नरः,
आचरति,
आत्मनः, श्रेयः, ततः, याति, पराम्, गतिम् ।।16.22।।
अनुवाद:
(कौन्तेय) हे अर्जुन! (एतैः) इन (त्रिभिः) तीनों (तमोद्वारैः) नरकके द्वारोंसे (विमुक्तः) मुक्त (नरः) पुरुष (आत्मनः) आत्मा के (श्रेयः)
कल्याणका (आचरति) आचरण करता है (ततः) इससे वह (पराम्) परम (गतिम्) गतिको (याति) जाता है
अर्थात् पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। (16.22)
तत्रा,
एवम्, सति, कर्तारम्, आत्मानम्, केवलम्, तु, यः,
पश्यति,
अकृतबुद्धित्वात्, न, सः, पश्यति, दुर्मतिः ।।18.16।।
अनुवाद:
(तु) परंतु (एवम्) ऐसा (सति) होनेपर भी (यः) जो मनुष्य (अकृतबुद्धित्वात्) अशुद्धबुद्धि
होने के कारण (तत्रा) उस विषयमें यानी कर्मोंके होनेमें (केवलम्) केवल (आत्मानम्) जीवात्मा
अर्थात् जीव को (कर्तारम्) कत्र्ता (पश्यति) समझता है (सः) वह (दुर्मतिः)
दुर्बुद्धिवाला अज्ञानी (न,पश्यति) यथार्थ नहीं समझता। (18.16)
अध्याय 18 का श्लोक 17
यत्,
अग्रे, च, अनुबन्धे, च, सुखम् मोहनम्, आत्मनः,
निद्रालस्यप्रमादोत्थम्,
तत्, तामसम्, उदाहृतम् ।।18.39।।
अनुवाद:
(यत्) जो (सुखम्) सुख (च) तथा (अग्रे) पहले भोगकालमें (च) तथा (अनुबन्धे) परिणाममें
(आत्मनः) आत्माको (मोहनम्) मोहित करनेवाला है (तत्) वह (निद्रालस्यप्रमादोत्थम्) निंद्रा
आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख (तामसम्) तामस (उदाहृतम्) कहा गया है। (18.39)
असक्तबुद्धिः,
सर्वत्रा, जितात्मा, विगतस्पृहः,
नैष्कम्र्यसिद्धिम्,
परमाम्, सन्नयासेन, अधिगच्छति ।।18.49।।
अनुवाद:
(सर्वत्रा) सर्वत्रा (असक्तबुद्धिः) आसक्तिरहित बुद्धिवाला (विगतस्पृहः) स्पृहारहित
और (जितात्मा) बुरे कर्मों से विजय प्राप्त भक्त आत्मा (सन्नयासेन) तत्व ज्ञान के
अतिरिक्त सर्व ज्ञनों से सन्यास प्राप्त करने वाले द्वारा (परमाम्) उस परम अर्थात्
सर्व श्रेष्ठ (नैष्कम्र्यसिद्धिम्) पूर्ण पाप विनाश होने पर जो पूर्ण मुक्ति होती
है, उस सिद्धि अर्थात् परमगति को (अधिगच्छति) प्राप्त होता है। (18.49)
बुद्धा,
विशुद्धया, युक्तः, धृत्या, आत्मानम्, नियम्य, च,
शब्दादीन्,
विषयान्, त्यक्त्वा, रागद्वेषौ, व्युदस्य, च ।।18.51।।
अनुवाद:
(विशुद्धया) विशुद्ध (बुद्धया) बुद्धिसे (युक्तः) युक्त (च) तथा (धृत्या) सात्विक
धारण शक्ति के द्वारा (आत्मानम् नियम्य) अपने आप को संयमी करके (च) और (शब्दादीन्)
शब्दादी (विषयान्) विकारों को (त्यक्त्वा) त्यागकर (रागद्वेषौ) राग द्वेष को (व्युदस्य) सर्वदा नष्ट करके (18.51)
विविक्तसेवी,
लघ्वाशी, यतवाक्कायमानसः,
ध्यानयोगपरः,
नित्यम्, वैराग्यम्, समुपाश्रितः ।।18.52।।
(लघ्वाशी) अन्न जल का संयमी (विविक्त सेवी) व्यर्थ वार्ता से
बच कर एकान्त प्रेमी (यत वाक् काय मानसः) मन-कर्म वचन पर संयम करने वाला (नित्यम्)
निरन्तर (ध्यान योग परः) सहज ध्यान योग के प्रायाण (वैराग्यम्) वैराग्य का
(समुपाश्रितः) आश्रय लेने वाला (18.52)
अहंकारम्,
बलम्, दर्पम्, कामम्, क्रोधम्, परिग्रहम्,
विमुच्य
निर्ममः, शान्तः, ब्रह्मभूयाय, कल्पते ।।18.53।।
अनुवाद:--
(अहंकारम्) अहंकार (बलम्) शक्ति (दर्पम्) घमण्ड (कामम्) काम अर्थात् विलास (क्रोधम्) क्रोध (परिग्रहम्) परिग्रह अर्थात् आवश्यकता से
अधिक संग्रह का (विमुच्य) त्याग करके (निर्ममः) ममता रहित (शान्तः) शान्त साधक (ब्रह्मभूयाय)
पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने का (कल्पते) पात्र होता है। (18.53)
Aur Gyan so Gyandi Kabir Gyan so Gyan Jaise Gola top ka Karta chale maidan
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