पूर्ण परमात्मा प्राप्ति के लिये शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म एवं साधना
ऊँ तत् सत् सांकेतिक मन्त्र को शास्त्रविधि अनुसार तत्वदर्शी संत से प्राप्त करने का
श्रीमद्भगवदगीता में स्पष्ट निर्देश
श्रीमद्भगवदगीता में स्पष्ट निर्देश
योग अर्थात्
वास्तविक भक्ति
योगस्थः, कुरु, कर्माणि, संगम्,
त्यक्त्वा, धनञ्जय,
सिद्धयसिद्धयोः, समः, भूत्वा, समत्वम्,
योगः, उच्यते ।।2.48।।
अनुवाद: (धनञ्जय) हे धनञ्जय!
(संगम्) तू आसक्तिको (त्यक्त्वा) त्यागकर तथा (सिद्धयसिद्धयोः) सिद्धि और
असिद्धिमें (समः) समान बुद्धिवाला (भूत्वा) होकर (योगस्थः) शास्त्रनुकूल भक्ति
योगमें स्थित हुआ (कर्माणि) शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्तव्यकर्मोंको (कुरु) कर
(समत्वम्) एक रूप ही (योगः) योग अर्थात् वास्तविक भक्ति (उच्यते) कहलाता है। (2.48)
बुद्धियुक्त भक्ति
मार्ग ही कुशलता है
बुद्धियुक्तः, जहाति, इह, उभे,
सुकृतदुष्कृते,
तस्मात् योगाय, युज्यस्व, योगः, कर्मसु,
कौशलम् ।।2.50।।
अनुवाद: (बुद्धियुक्तः)
समबुद्धियुक्त अर्थात् तत्वदर्शी संत द्वारा बताया वास्तविक एक रूप शास्त्र अनुकूल
भक्ति मार्ग पर लगा साधक पुरुष (सुकृतदुष्कृते) अच्छे कर्म जैसे मनमानी पूजाऐं जो सुकृत
मान कर कर रहा था या मेरे बताए मार्ग अनुसार ओम् का जाप व यज्ञ आदि पुण्य करता था उस
पुण्य को तथा बुरे कर्म जैसे मांस-मदिरा-तम्बाखु आदि नशीली वस्तुओं के सेवन रूपी
दुष्कर्म पाप इन (उभे) दोनोंको (इह)इसी लोक में अर्थात् काल लोक में (जहाति) त्याग
देता है अर्थात् जैसे पूर्ण संत कहता है वैसे ही करता है (तस्मात्) इसलिए तू
(योगाय) शास्त्र विधि अनुसार साधना अर्थात् समत्वरूप योगमें (युज्यस्व) लग जा यह
(योगः) तत्वदर्शी संत द्वारा बताया भक्ति मार्ग ही (कर्मसु) भक्ति कर्मों में
(कौशलम्) कुशलता है अर्थात् बुद्धिमत्ता है। (2.50)
तानि, सर्वाणि, संयम्य, युक्तः,
आसीत, मत्परः,
वशे, हि, यस्य, इन्द्रियाणि,
तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता
।।2.61।।
अनुवाद: (तानि) उन
(सर्वाणि) सम्पूर्ण इन्द्रियोंको (संयम्य) वशमें करके (युक्तः) समाहित चित हुआ
(मत्परः) शास्त्रनुसार साधना (आसीत) में दृढता से लगे (हि) क्योंकि (यस्य) जिस पुरुषकी
(इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ (वशे) वशमें होती है (तस्य) उसकी (प्रज्ञा) बुद्धि
(प्रतिष्ठिता) स्थिर हो जाती है अर्थात् मन व इन्द्रियों के ऊपर बुद्धि की
प्रभुत्ता रहती है। (2.61)
प्रसादे, सर्वदुःखानाम्, हानिः, अस्य, उपजायते,
प्रसन्नचेतसः, हि, आशु, बुद्धिः,
पर्यवतिष्ठते ।।2.65।।
अनुवाद: (प्रसादे)
अन्तःकरणकी प्रसन्नता होनेपर (अस्य) इसके (सर्वदुःखानाम्) सम्पूर्ण दुःखोंका
(हानिः) अभाव (उपजायते) हो जाता है और उस (प्रसन्नचेतसः) प्रसन्न-चित्तवाले कर्मयोगीकी
(बुद्धिः) बुद्धि (आशु) शीघ्र (हि) ही सब ओरसे हटकर एक परमात्मामें ही (पर्यवतिष्ठते)
भलीभाँति स्थिर हो जाती है। (2.65)
तस्मात् यस्य, महाबाहो, निगृहीतानि, सर्वशः,
इन्द्रियाणि, इन्द्रियार्थेभ्यः, तस्य, प्रज्ञा, प्रतिष्ठिता ।।2.68।।
अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये
(महाबाहो) हे महाबाहो! (यस्य) जिस पुरुषकी (इन्द्रियाणि) इन्द्रियाँ तत्वज्ञान के
आधार से (इन्द्रियार्थेभ्यः) इन्द्रियोंके विषयोंसे (सर्वशः) सब प्रकार (निगृहीतानि)
निग्रह की हुई हैं (तस्य) उसीकी (प्रज्ञा) बुद्धि (प्रतिष्ठिता) स्थिर है। (2.68)
या, निशा, सर्वभूतानाम्, तस्याम्, जागर्ति, संयमी,
यस्याम्, जाग्रति, भूतानि, सा,
निशा, पश्यतः, मुनेः ।।2.69।।
अनुवाद: (सर्वभूतानाम्)
सम्पूर्ण प्राणियों के लिये (या) जो (निशा) रात्रिके समान है (तस्याम्) उस नित्य
ज्ञानस्वरूप परमानन्दकी प्राप्तिमें (संयमी) स्थितप्रज्ञ योगी (जाग्रति) जागता है
और (यस्याम्) जिस नाशवान् सांसारिक सुखकी प्राप्ति में (भूतानि) सब प्राणी
(जाग्रति) जागते हैं (पश्यतः) परमात्माके तत्वको जाननेवाले (मुनेः) मुनिके लिये
(सा) वह (निशा) रात्रिके समान है। (2.69)
आपूर्यमाणम्, अचलप्रतिष्ठम्, समुद्रम्, आपः, प्रविशन्ति, यद्वत्,
तद्वत्, कामाः, यम्, प्रविशन्ति,
सर्वे, सः, शान्तिम्,
आप्नोति, न, कामकामी ।।2.70।।
अनुवाद: (यद्वत्) जैसे
नाना नदियोंके (आपः) जल जब (आपूर्यमाणम्) सब ओरसे परिपूर्ण (अचलप्रतिष्ठम्) अचल
प्रतिष्ठावाले (समुद्रम्) समुद्रमें उसको विचलित न करते हुए ही (प्रविशन्ति) समा
जाते हैं (तद्वत्) वैसे ही (सर्वे) सब (कामाः) भोग (यम्) जिस स्थितप्रज्ञ पुरुषमें
किसी प्रकारका विकार उत्पन्न किये बिना ही (प्रविशन्ति) समा जाते हैं (सः) वही
पुरुष (शान्तिम्) परम शान्तिको (आप्नोति) प्राप्त होता है (कामकामी) भोगोंको
चाहनेवाला (न) नहीं। (2.70)
विहाय, कामान्, यः, सर्वान्,
पुमान्, चरति, निःस्पृहः,
निर्ममः, निरहंकारः, सः, शान्तिम्,
अधिगच्छति ।।2.71।।
अनुवाद: (यः) जो (पुमान्)
पुरुष (सर्वान्) सम्पूर्ण (कामान्) कामनाओंको (विहाय) त्यागकर (निर्ममः) ममता रहित
(निरहंकारः) अहंकाररहित और (निःस्पृहः) स्पृहारहित हुआ (चरति) विचरता है (सः) वही (शान्तिम्)
शान्तिको (अधिगच्छति) प्राप्त होता है अर्थात् वह शान्तिको प्राप्त है। (2.71)
न, कर्मणाम्, अनारम्भात्, नैष्कम्र्यम्, पुरुषः, अश्नुते,
न, च, सन्नयसनात्, एव,
सिद्धिम्, समधिगच्छति ।।3.4।।
अनुवाद: (न) न तो
(कर्मणाम्) कर्मोंका (अनारम्भात्) आरम्भ किये बिना (नैष्कम्र्यम्) शास्त्रों में
वर्णित शास्त्र अनुकुल साधना जो संसारिक कर्म करते-करते करने से पूर्ण मुक्ति होती
है वह गति अर्थात् (पुरूषः) परमात्मा (अश्नुते) प्राप्त होता है {जैसे किसी ने फसल काटनी है तो वह काटना प्रारम्भ करने से ही
कटेगी। फिर काटने वाला कर्म शेष नही रहेगा} (च) और (एव) इसलिए
(सन्नयसनात्) कर्मोंके केवल त्यागमात्र से एक स्थान पर बैठ कर विशेष आसन पर बैठ कर
संसारिक कर्म त्यागकर हठ योग से (सिद्धिम्) सिद्धि (न समधिगच्छति) प्राप्त नहीं
होती है। (3.4)
प्रकृति जनित गुण
न, हि, कश्चित्, क्षणम्,
अपि, जातु, तिष्ठति,
अकर्मकृत्,
कार्यते, हि, अवशः, कर्म,
सर्वः, प्रकृतिजैः, गुणैः
।।3.5।।
अनुवाद: (हि) निःसन्देह
(कश्चित्) कोई भी मनुष्य (जातु) किसी भी कालमें (क्षणम्) क्षणमात्र (अपि) भी
(अकर्मकृत्) बिना कर्म किये (न) नहीं (तिष्ठति) रहता (हि) क्योंकि (सर्वः) सारा
मनुष्य समुदाय (प्रकृतिजैः) प्रकृति अर्थात् दुर्गा जनित (गुणैः) रजगुण ब्रह्मा, सतगुण विष्णु, तमगुण शिव जी गुणोंद्वारा
(अवशः) परवश हुआ (कर्म) कर्म करनेके लिये (कार्यते) बाध्य किया जाता है। (3.5)(इसी
का प्रमाण अध्याय 14 श्लोक 3 से 5 में भी है।)
यः, तु, इन्द्रियाणि, मनसा,
नियम्य, आरभते, अर्जुन,
कर्मेन्द्रियैः, कर्मयोगम्, असक्तः, सः, विशिष्यते ।।3.7।।
अनुवाद: (तु) किंतु
(अर्जुन) हे अर्जुन! (यः) जो पुरुष (मनसा) मनसे (इन्द्रियाणि) इन्द्रियोंको
(नियम्य) नियन्त्रित अर्थात् वशमें करके (असक्तः) अनासक्त हुआ (कर्मेन्द्रियैः)
समस्त कर्म इन्द्रियोंद्वारा (कर्मयोगम्) शास्त्र विधि अनुसार संसारी कार्य
करते-करते भक्ति कर्म अर्थात् कर्मयोगका (आरभते) आचरण करता है (सः) वही
(विशिष्यते) श्रेष्ठ है। (3.7)
विशेष:- उपरोक्त न करने
वाले हठयोग को गीता श्लोक 6.10 से 6.15 में करने को कहा है। इसलिए अर्जुन श्लोक 3.2
में कह रहा है कि आप की दोगली बातें मुझे भ्रम में डाल रही हैं।
शरीर-निर्वाह
नियतम्, कुरु, कर्म, त्वम्,
कर्म, ज्यायः, हि,
अकर्मणः,
शरीरयात्रा, अपि, च, ते,
न, प्रसिद्धयेत्, अकर्मणः
।।3.8।।
अनुवाद: (त्वम्) तू
(नियतम्) शास्त्रविहित (कर्म) कर्म (कुरु) कर (हि) क्योंकि (अकर्मणः) कर्म न
करनेकी अपेक्षा अर्थात् एक स्थान पर एकान्त स्थान पर विशेष कुश के आसन पर बैठ कर भक्ति
कर्म हठपूर्वक करने की अपेक्षा (कर्म) संसारिक कर्म करते-करते भक्ति कर्म करना
(ज्यायः) श्रेष्ठ है (च) तथा (अकर्मणः) कर्म न करनेसे अर्थात् हठयोग करके एकान्त
स्थान पर बैठा रहेगा तो (ते) तेरा (शरीरयात्रा) शरीर-निर्वाह अर्थात् तेरा परिवार
पोषण (अपि) भी (न) नहीं (प्रसिद्धयेत्) सिद्ध होगा। (3.8)
यज्ञार्थात्, कर्मणः, अन्यत्रा, लोकः, अयम्, कर्मबन्धनः,
तदर्थम्, कर्म, कौन्तेय, मुक्तसंगः,
समाचर ।।3.9।।
अनुवाद: (यज्ञार्थात्)
यज्ञ अर्थात् धार्मिक अनुष्ठान के निमित किये जानेवाले (कर्मणः) शास्त्र विधि
अनुसार कर्मोंसे अतिरिक्त (अन्यत्रा) शास्त्र विधि त्याग कर दूसरे कर्मोंमें लगा
हुआ ही (अयम्) इस (लोकः) संसार में (कर्मबन्धनः) कर्मोंसे बँधता है अर्थात् चैरासी
लाख योनियों में यातनाऐं सहन करता है।। इसलिए (कौन्तेय) हे अर्जुन! तू (मुक्तसंगः)
आसक्तिसे रहित होकर (तदर्थम्) उस शास्त्रानुकूल यज्ञके निमित ही भलीभाँति (कर्म)
भक्ति के शास्त्रविधि अनुसार करने योग्य कर्म अर्थात् कर्तव्यकर्म (समाचर)
संसारिक कर्म करता हुआ शास्त्र अनुकूल अर्थात् विधिवत् साधना कर। (3.9)
विशेष:- उपरोक्त गीता
श्लोक 3.6 से 3.9 तक एक स्थान
पर एकान्त में विशेष आसन पर बैठ कर कान-आंखें आदि बन्द करके हठ करने की मनाही की
है तथा शास्त्रों में वर्णित भक्ति विधि अनुसार साधना करना श्रेयकर बताया है। प्रत्येक
सद्ग्रन्थों में संसारिक कार्य करते-करते नाम जाप व यज्ञादि करने का भक्ति विद्यान
बताया है।
पूर्ण परमात्मा गीता ज्ञान दाता ब्रह्म से अन्य
तम्, एव,
शरणम्, गच्छ, सर्वभावेन, भारत,
तत्प्रसादात्, पराम्, शान्तिम्, स्थानम्, प्राप्स्यसि, शाश्वतम् ।।18.62।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत!
तू (सर्वभावेन) सब प्रकारसे (तम्) उस परमेश्वरकी (एव) ही (शरणम्) शरणमें (गच्छ) जा। (तत्प्रसादात्) उस परमात्माकी कृपा
से ही तू (पराम्) परम (शान्तिम्) शान्तिको तथा (शाश्वतम्) सदा रहने वाला सत
(स्थानम्) स्थान/धाम/लोक को अर्थात् सतलोक को (प्राप्स्यसि) प्राप्त होगा। (18.62)
अभ्यासयोगयुक्तेन, चेतसा, नान्यगामिना।
परमम्, पुरुषम्, दिव्यम्, याति, पार्थ, अनुचिन्तयन्।।8.8।।
अनुवाद: (पार्थ) हे पार्थ!
(अभ्यासयोगयुक्तेन) परमेश्वरके नाम जाप के अभ्यासरूप योगसे युक्त अर्थात् उस पूर्ण
परमात्मा की पूजा में लीन (नान्यगामिना) दूसरी ओर न जानेवाले (चेतसा) चित्तसे (अनुचिन्तयन्) निरन्तर चिन्तन करता हुआ भक्त (परमम्) परम
(दिव्यम्) दिव्य (पुरुषम्) परमात्माको अर्थात् परमेश्वरको ही (याति) प्राप्त होता
है। (8.8)
कविम्, पुराणम् अनुशासितारम्, अणोः,
अणीयांसम्, अनुस्मरेत्,
यः, सर्वस्य, धातारम्, अचिन्त्यरूपम्, आदित्यवर्णम्,
तमसः, परस्तात् ।।8.9।।
अनुवाद: (कविम्) कविर्देव, अर्थात् कबीर परमेश्वर जो कवि रूप में प्रसिद्ध होता है वह
(पुराणम्) अनादि,
(अनुशासितारम्) सबके नियन्ता (अणोः, अणीयांसम्) सूक्ष्मसे भी अति सूक्ष्म, (सर्वस्य) सबके (धातारम्) धारण-पोषण करने वाला (अचिन्त्यरूपम्) अचिन्त्य-स्वरूप (आदित्यवर्णम्)
सूर्यके सदृश नित्य प्रकाशमान है (यः) जो साधक (तमसः) उस अज्ञानरूप अंधकारसे
(परस्तात्) अति परे सच्चिदानन्दघन परमेश्वरका (अनुस्मरेत्) सुमरण करता है। (8.9)
प्रयाणकाले, मनसा, अचलेन, भक्त्या, युक्तः, योगबलेन, च, एव,
भ्रुवोः,
मध्ये, प्राणम्, आवेश्य, सम्यक्, सः, तम्,
परम् पुरुषम्, उपैति,
दिव्यम् ।।8.10।।
अनुवाद: (सः) वह (भक्त्या, युक्तः) भक्तियुक्त साधक (प्रयाणकाले) अन्तकालमें (योगबलेन)
नाम के जाप की भक्ति के प्रभावसे (भ्रुवोः) भृकुटी के (मध्ये) मध्यमें (प्राणम्)
प्राणको (सम्यक्) अच्छी प्रकार (आवेश्य)
स्थापित करके (च) फिर (अचलेन) निश्चल (मनसा) मनसे (तम्) अज्ञात (दिव्यम्) दिव्यरूप
(परम्) परम (पुरुषम्) भगवानको (एव) ही (उपैति) प्राप्त होता
है। (8.10)
यत्, अक्षरम्, वेदविदः, वदन्ति, विशन्ति, यत्,
यतयः, वीतरागाः,
यत्, इच्छन्तः, ब्रह्मचर्यम्, चरन्ति, तत्, ते,
पदम्, सङ्ग्रहेण, प्रवक्ष्ये ।।8.11।।
अनुवाद: उपरोक्त श्लोक 8 से 10 में वर्णित
(यत्) जिस सच्चिदानन्द घन परमेश्वर को (वेदविदः) वेद के जानने वाले अर्थात्
तत्वदर्शी सन्त (अक्षरम्) वास्तव में अविनाशी (वदन्ति) कहते हैं। (यत्) जिसमें (यतयः) यत्नशील (वितरागाः) रागरहित साधक जन (विशन्ति) प्रवेश
करते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं (यत्) जिसे (इच्छन्तः) चाहने वाले
(ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य का (चरन्ति) आचरण करते हैं अर्थात् ब्रह्मचारी रह कर भी
उस परमात्मा को प्राप्त करने की कोशिश करते हैं। (तत्) उस (पदम्) पद अर्थात् पूर्ण
परमात्मा को प्राप्त करने वाले भक्ति पद्धती को उस पूजा विधि को (ते) तेरे लिए
(सङ्ग्रेहण) संक्षेप से अर्थात् सांकेतिक रूप से (प्रवक्ष्ये) कहूँगा। (8.11)
सांकेतिक मन्त्र
को प्राप्त करने की शास्त्र विधि
सर्वद्वाराणि, संयम्य, मनः, हृदि, निरुध्य, च,
मूर्ध्नि, आधाय, आत्मनः, प्राणम्, आस्थितः, योगधारणाम् ।।8.12।।
अनुवाद: (सर्वद्धाराणि)
सर्व इन्द्रियों के द्वारों को (संयम्य) नियमित करके (मनः) मन को (हृदय) हृदय देश
में (च) तथा (प्राणम्) स्वासों को (मूर्ध्नि) मस्तिक में (निरुध्य) स्थिर करके (आत्मनः) परमात्मा के ध्यान में
(अधाय) स्थापित करके (योग धारणाम्) योग धारण अर्थात् साधना में (आस्थितः) स्थित
होता है। (8.12)
गीता ज्ञान
दाता ब्रह्म की प्राप्ति का मन्त्र
ओम्, इति,
एकाक्षरम्, ब्रह्म, व्याहरन्, माम्, अनुस्मरन्,
यः, प्रयाति, त्यजन्, देहम्, सः, याति, परमाम्, गतिम् ।।8.13।।
अनुवाद: (माम् ब्रह्म) मुझ
ब्रह्म का तो (इति) यह (ओम्) ओम् / ऊँ (एकाक्षरम) एक अक्षर है (व्यवाहरन्) उच्चारण
करते हुए (अनुस्मरन्) स्मरन करने अर्थात् साधना करने का (यः) जो (त्यजन् देहम्)
शरीर त्याग कर जाता हुआ स्मरण करता है अर्थात् अंतिम समय में (प्रयाति) साधना
स्मरण करता हुआ मर जाता है (सः) वह (परमाम् गतिम्) ब्रह्म स्तर की परम गति को
(याति) प्राप्त होता है।
पूर्ण
परमात्मा की प्राप्ति का मन्त्र : शास्त्र विधि अनुसार
ऊँ, तत्,
सत्,
इति,
निर्देशः, ब्रह्मणः, त्रिविधः, स्मृतः,
ब्राह्मणाः, तेन,
वेदाः, च, यज्ञाः, च, विहिताः, पुरा ।।17.23।।
अनुवाद: (ऊँ )ओंम् मन्त्र ब्रह्म का(तत्) तत् यह सांकेतिक मंत्र परब्रह्म
का (सत्) सत् यह सांकेतिक मन्त्र पूर्णब्रह्म का है (इति) ऐसे यह (त्रिविधः) तीन
प्रकार के (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्मा के नाम सुमरण का (निर्देशः) आदेश (स्मृतः)
कहा है (च) और (पुरा) सृष्टिके आदिकालमें (ब्राह्मणाः) विद्वानों ने (तेन) उसी
(वेदाः) तत्वज्ञान के आधार से वेद (च) तथा (यज्ञाः) यज्ञादि (विहिताः) रचे। उसी
आधार से साधना करते थे। (17.23)
पूर्ण परमात्माको प्राप्त हो जाने पर छोटों पर श्रद्धा नहीं
यावान्, अर्थः, उदपाने, सर्वतः, सम्प्लुतोदके,
तावान्, सर्वेषु, वेदेषु, ब्राह्मणस्य, विजानतः ।।2.46।।
अनुवाद: (सर्वतः) सब ओरसे (सम्प्लुतोदके) परिपूर्ण जलाशयके प्राप्त हो जाने पर (उदपाने) छोटे जलाशयमें मनुष्यका (यावान्) जितना (अर्थः) प्रयोजन रहता है पूर्ण परमात्माको (विजानतः) तत्वसे जाननेवाले (ब्राह्मणस्य) विद्वानका (सर्वेषु) समस्त (वेदेषु) ज्ञानों में (तावान्) उतना ही प्रयोजन रह जाता है। (2.46)
भावार्थ:- जिस प्रकार बहुत बड़े जलाशय (जिस का जल दस वर्ष वर्षा न होने पर भी समाप्त न हो) के प्राप्त हो जाने के पश्चात् छोटे जलाशय में जैसी श्रद्धा रह जाती है इसी प्रकार तत्वज्ञान की प्राप्ति पर अन्य ज्ञानों (चारों वेदों अठारह पुराणों व गीता जी आदि) मैं ऐसी श्रद्धा रह जाती है। क्योंकि उनमें पर्याप्त ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार तत्वज्ञान के आधार से पूर्ण परमात्मा के गुणों का ज्ञान हो जाने पर पूर्ण मन्त्र ओं-तत्-सत् प्राप्त हो जाने पर अन्य परमात्माओं (परब्रह्म, ऊँ ब्रह्म तथा श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु तथा श्री शिव व दुर्गा) में ऐसी ही श्रद्धा रह जाती है। ये अन्य देवता बुरे नहीं लगते परन्तु इनसे मिलने वाला लाभ पर्याप्त नहीं।
भावार्थ: पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करने वाली भक्ति पद्धती में साधक स्वासों द्वारा साधना करता है। गीता श्लोक 17.23 में ओं-तत्-सत् जो तीन मन्त्रों का जाप है उसका मन-पवन अर्थात् स्वासों व सुरति व निरति को सम करके मस्तिक तथा हृदय में अभ्यास करता है। जैसे सतनाम के जाप को स्वासों द्वारा किया जाता है। सत्यनाम में दो अक्षर होते हैं एक अक्षर ओंम् (ऊँ) तथा दूसरा तत् जो गुप्त है। ओंम् (ऊँ) नाम ब्रह्म का जाप है। ब्रह्म का स्थान संहस्त्र कमल है जो मस्तिक के पीछे है तथा पूर्ण परमात्मा विशेष रूप से हृदय में (जल में सूर्य की तरह) निवास करता है। इसलिए सत्यनाम के सुमरण में स्वांस पर ध्यान एकाग्र करके मस्तिक व हृदय में स्वांस के साथ ध्यान से नामों का जाप किया जाता है। काल भगवान को पूर्ण भक्ति विधि का ज्ञान नहीं है। श्लोक 8.13 में केवल अपनी साधना की विधि बताई है।
सम्पूर्ण पापोंसे मोक्ष
सर्वधर्मान्, परित्यज्य, माम्, एकम्, शरणम्, व्रज,
अहम्, त्वा, सर्वपापेभ्यः, मोक्षयिष्यामि, मा,
शुचः ।।18.66।।
अनुवाद: गीता श्लोक 18.62 में जिस परमेश्वर की शरण में जाने को कहा है इस श्लोक 18.66 में भी उसी के विषय में कहा है कि (माम्) मेरी
(सर्वधर्मान्) सम्पूर्ण पूजाओंको (माम्) मुझ में (परित्यज्य) त्यागकर तू केवल
(एकम्) एक उस अद्वितीय अर्थात् पूर्ण परमात्मा की (शरणम्) शरणमें (व्रज) जा।
(अहम्) मैं (त्वा) तुझे (सर्वपापेभ्यः) सम्पूर्ण पापोंसे (मोक्षयिष्यामि) छुड़वा
दूँगा तू (मा,शुचः) शोक मत कर। (18.66)
विशेष:- अन्य गीता अनुवाद
कर्ताओं ने ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ
आना किया है जो अनुचित है ‘‘व्रज्’’ शब्द का अर्थ
जाना,
चला जाना आदि होता है।
पवित्र गीता श्लोक 17.23 में पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति अर्थात् पूर्ण मोक्ष रूपी
परम गति का वर्णन है। उस पूर्ण मोक्ष मार्ग के नाम में तीन अक्षर का जाप ओं-तत-सत्
है। गीता श्लोक 8.13 का तात्पर्य है कि मुझ ब्रह्म का
उच्चारण करके सुमरण करने का केवल एक मात्रा ओ3म् अक्षर है जो ऊँ, तत्,
सत् का जाप अन्तिम स्वांस तक
कर्म करते-करते भी करता है गीता श्लोक 18.66 का तात्पर्य है ऊँ नाम की कमाई - सम्पूर्ण
पूजाओंको वह मुझ को देकर पाप मुक्त होकर परमगति को प्राप्त होता है। केवल ऊँ नाम
की कमाई ब्रह्म गति को तो गीता श्लोक 7.18 में अनुत्तम कहा है।
ऊँ तत् सत् सांकेतिक
मन्त्र को शास्त्र विधि से तत्वदर्शी संत से प्राप्त करने का संकेत
तत्, विद्धि, प्रणिपातेन, परिप्रश्नेन, सेवया,
उपदेक्ष्यन्ति, ते, ज्ञानम्, ज्ञानिनः,
तत्त्वदर्शिनः ।।4.34।।
अनुवाद: उस (तत्)
तत्वज्ञान को (विद्धि) समझ उन पूर्ण परमात्मा के वास्तविक ज्ञान व समाधान को जानने
वाले संतोंको (प्रणिपातेन) भलीभाँति दण्डवत् प्रणाम करनेसे उनकी (सेवया) सेवा
करनेसे और कपट छोड़कर (परिप्रश्नेन) सरलतापूर्वक प्रश्न करनेसे (ते) वे
(तत्वदर्शिनः) पूर्ण ब्रह्म को तत्व से जानने वाले अर्थात् तत्वदर्शी (ज्ञानिनः)
ज्ञानी महात्मा तुझे उस (ज्ञानम्) तत्वज्ञानका (उपदेक्ष्यन्ति) उपदेश करेंगे। (4.34)
यः, तु, आत्मरतिः, एव,
स्यात्, आत्मतृप्तः, च,
मानवः,
आत्मनि, एव, च, सन्तुष्टः,
तस्य, कार्यम्, न,
विद्यते ।।3.17।।
अनुवाद: (तु) परंतु (यः)
जो (मानवः) मनुष्य (एव) वास्तव में (आत्मरतिः) आत्मा के साथ अभेद रूप में रहने
वाले परमात्मा में लीन रहने वाला ही रमण (च) और (आत्मतृप्तः) परमात्मा में ही
तृप्त (च) तथा (आत्मनि एव) परमात्मा में ही (सन्तुष्टः) संतुष्ट (स्यात्) हो, (तस्य) उसके लिये (कार्यम्) कोई कत्र्तव्य (न) नहीं (विद्यते)
जान पड़ता। (3.17)
न, एव, तस्य, कृतेन,
अर्थः, न, अकृतेन,
इह, कश्चन,
न, च, अस्य, सर्वभूतेषु,
कश्चित्, अर्थव्यपाश्रयः ।।3.18।।
अनुवाद: (तस्य) उस
महापुरुषका (इह) इस विश्वमें (न) न तो (कृतेन) कर्म करनेसे (कश्चन) कोई (अर्थः)
प्रयोजन रहता है और (न) न (अकृतेन) कर्मोंके न करनेसे (एव) ही कोई प्रयोजन रहता है
(च) तथा (सर्वभूतेषु) सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी (अस्य) इसका (कश्चित्)
किंचितमात्रा भी (अर्थव्यपाश्रयः) स्वार्थका सम्बन्ध (न) नहीं रहता। क्योंकि वह
स्वार्थ रहित होने से किसी को शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म नहीं करवाता, न ही स्वयं करता है। वह धन उपार्जन के उद्देश्य से साधना नहीं
करता या करवाता। (3.18)
कर्मणा, एव, हि, संसिद्धिम्,
आस्थिताः, जनकादयः,
लोकसंग्रहम्, एव, अपि, सम्पश्यन्,
कर्तुम्, अर्हसि ।।3.20।।
अनुवाद: (जनकादयः) जनकादि
भी (कर्मणा) आसक्ति रहित कर्मद्वारा (एव) ही (संसिद्धिम्) सिद्धिको (आस्थिताः)
प्राप्त हुए थे। (हि) इसलिये (लेाकसंग्रहम्) लोकसंग्रहको (सम्पश्यन्) देखते हुए
(अपि) भी तू (कर्तुम्) सांसारिक कार्य करते हुए भी शास्त्र विधि अनुसार कर्म
करनेको (एव) ही (अर्हसि) योग्य है अर्थात् तुझे कर्म करना ही उचित है। (3.20)
यत्, यत् आचरति, श्रेष्ठः, तत्, तत्, एव, इतरः, जनः,
सः, यत्, प्रमाणम्, कुरुते,
लोकः, तत्, अनुवर्तते ।।3.21।।
अनुवाद: (श्रेष्ठः)
श्रेष्ठ पुरुष अर्थात् शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले साधक (यत्,यत्) जो-जो (आचरति) आचरण करता है (इतरः) अन्य (जनः) पुरुष भी
(तत्,तत्) वैसा-वैसा (एव) ही आचरण करते हैं (सः) वह (यत्) जो
कुछ (प्रमाणम्) प्रमाण (कुरुते) कर देता है (लोकः) समस्त मनुष्यसमुदाय (तत्) उसीके
(अनुवर्तते) अनुसार बरतने लग जाता है। (3.21)
सक्ताः, कर्मणि, अविद्वांसः, यथा, कुर्वन्ति, भारत,
कुर्यात्, विद्वान्, तथा, असक्तः,
चिकीर्षुः, लोकसङ्ग्रहम् ।।3.25।।
अनुवाद: (भारत) हे भारत!
(कर्मणि) कर्ममें (सक्ताः) आसक्त हुए (अविद्वांसः) अज्ञानीजन (यथा) जिस प्रकार शास्त्रअनुकूल
कर्म (कुर्वन्ति) करते हैं (असक्तः) आसक्तिरहित (विद्वान्) विद्वान् भी
(लोकसङ्ग्रहम्) शिष्य बनाने की इच्छा से जनता इक्कठी (चिकीर्षुः) करना चाहता हुआ
(तथा) उपरोक्त शास्त्र विधि अनुसार कर्म (कुर्यात्) करे। (3.25)
भावार्थ:- भगवान कह रहे है
कि यदि अशिक्षित व्यक्ति शास्त्रविधि अनुसार साधना करते हैं तो शिक्षित व्यक्ति को
भी उसका अनुसरण करना चाहिए। इसी में विश्व कल्याण है।
न, बुद्धिभेदम्, जनयेत्, अज्ञानाम्, कर्मसंगिनाम्,
जोषयेत्, सर्वकर्माणि, विद्वान्, युक्तः, समाचरन् ।।3.26।।
अनुवाद: (कर्मसंगिनाम्) शास्त्र
अनुकूल साधकों द्वारा दिए ज्ञान से शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्मों पर अडिग
(अज्ञानाम्) अशिक्षितों अर्थात् अज्ञानियोंकी (बुद्धिभेदम्) साधनाओं शास्त्र विरुद्ध
साधना से हानि तथा शास्त्र विधि अनुसार साधना से लाभ होता है, इसे प्रत्यक्ष देखकर उनकी बुद्धि में अन्तर (न, जनयेत्) उत्पन्न न करे अर्थात् उनको विचलित न करें कि तुम अशिक्षित हो तुम
क्या जानों सत्य साधना। अपने मान वश उनको भ्रमित न करके अन्य शास्त्र विरूद्ध
(युक्तः) साधना में लीन (विद्वान्) ज्ञानी पुरुषको चाहिए कि वह (सर्वकर्माणि)
भक्ति कर्मों को (समाचरन्) सुचारू रूप से करता हुआ उनसे भी वैसे ही (जोषयेत्)
करवावे अर्थात् उनको भ्रमित न करके प्रोत्साहन करे। (3.26)
तत्त्ववित्, तु, महाबाहो, गुणकर्मविभागयोः,
गुणाः, गुणेषु, वर्तन्ते, इति, मत्वा, न, सज्जते ।।3.28।।
अनुवाद: (तु) परंतु
(महाबाहो) हे महाबाहो! (गुणकर्मविभागयोः) गुणविभाग और कर्मविभागके (तत्त्ववित्)
तत्वको जाननेवाला ज्ञानी अर्थात् तत्वदर्शी (गुणाः) सम्पूर्ण गुण ही (गुणेषु)
गुणोंमें (वर्तन्ते) बरत रहे हैं अर्थात् जितनी शक्ति तीनों गुणों रजगुण ब्रह्मा
जी, सतगुण विष्णु जी तमगुण शिव जी में है,
उससे पूर्ण परिचित व्यक्ति की आस्था इन में इतनी रह जाती है। (इति)
ऐसा (मत्वा) समझकर उनमें (न,सज्जते) आसक्त नहीं होता अर्थात्
अहंकार त्यागकर तुरन्त शास्त्रअनुकूल साधना करने लग जाता है। (3.28)
प्रकृतेः, गुणसम्मूढाः, सज्जन्ते, गुणकर्मसु,
तान्, अकृत्स्न्नविदः, मन्दान्, कृत्स्न्नवित्, न, विचालयेत् ।।3.29।।
अनुवाद: (प्रकृतेः)
प्रकृति से उत्पन्न प्रकृति के पुत्रा तीनों (गुणसम्मूढाः) गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा
जी, सतगुण विष्णु जी, तमगुण
शिव जी से अत्यन्त मोहित हुए मुर्ख मनुष्य (गुणकर्मसु) गुणों अर्थात् तीनों
प्रभुओं की साधना के कर्मोंमें (सज्जन्ते) आसक्त रहते हैं (तान्) उन
(अकृत्स्त्राविदः) पूर्णतया न समझनेवाले अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर साधना करने
वाले जो स्वभाव वश चल रहे हैं उन (मन्दान्) मन्दबुद्धि अशिक्षितों को (कृत्स्त्रावित्)
सत्यभक्ति जाननेवाला ज्ञानी अर्थात् शास्त्र अनुसार साधना करने वाले (न, विचालयेत्) मन्द बुद्धि अज्ञानियों को जो स्वभाववश तीनों गुणों अर्थात्
श्री ब्रह्मा जी, श्री विष्णु जी तथा श्री शिव जी तक की
साधना पर अडिग हैं, उनकी गलत साधना से विचलित नहीं कर सकते
अर्थात् बहुत कठिन है, वे तो नष्ट ही हैं। (3.29)
ये, मे, मतम्, इदम्,
नित्यम्, अनुतिष्ठन्ति, मानवाः,
श्रद्धावन्तः, अनसूयन्तः, मुच्यन्ते, ते, अपि, कर्मभिः ।।3.31।।
अनुवाद: (ये) जो कोई
(मानवाः) मनुष्य (अनसूयन्तः) दोषदृष्टिसे रहित और (श्रद्धावन्तः) श्रद्धायुक्त
होकर (मे) मेरे (इदम्) इस (मतम्) मत अर्थात् सिद्धांत का (नित्यम्) सदा (अनुतिष्ठन्ति)
अनुसरण करते हैं (ते) वे (अपि) भी (कर्मभिः) शास्त्र विधि त्याग कर अर्थात् सिद्धान्त
छोड़ कर किए जाने वाले दोष युक्त कर्मोंसे (मुच्यन्ते) बच जाते हैं। (3.31)
ये, तु, एतत्, अभ्यसूयन्तः,
न, अनुतिष्ठन्ति, मे,
मतम्,
सर्वज्ञानविमूढान्, तान्, विद्धि, नष्टान्,
अचेतसः ।।3.32।।
अनुवाद: (तु) परंतु (ये)
जो (अभ्यसूयन्तः) दोषारोपण करते हुए (मे) मेरे (एतत्) इस (मतम्) मत अर्थात्
सिद्धान्त के (न, अनुतिष्ठन्ति) अनुसार नहीं चलते हैं (तान्)
उन (अचेतसः) मूर्खोंको तू (सर्वज्ञानविमूढ़ान्) सम्पूर्ण ज्ञानोंमें मोहित और
(नष्टान्) नष्ट हुए ही (विद्धि) जान। (3.32)
सदृशम्, चेष्टते, स्वस्याः, प्रकृतेः, ज्ञानवान्, अपि,
प्रकृतिम्, यान्ति, भूतानि, निग्रहः,
किम्, करिष्यति ।।3.33।।
अनुवाद: (भूतानि) सभी
प्राणी (प्रकृतिम्) प्रकृति अर्थात् स्वभाव को (यान्ति) प्राप्त होते हैं (ज्ञानवान्)
ज्ञानवान् (अपि) भी (स्वस्याः) अपने निष्कर्ष द्वारा निकाले भक्ति मार्ग के आधार
से (प्रकृतेः) स्वभावके (सदृशम्) अनुसार (चेष्टते) चेष्टा करता है (निग्रहः) हठ
(किम्) क्या (करिष्यति) करेगा? (3.33)
विशेष:- स्वभाव वश सर्व
प्राणी धार्मिक कर्म करते हैं। कहने से भी नहीं मानते। वे राक्षस स्वभाव के
व्यक्ति शास्त्र विधि रहित अर्थात् मेरे मत के विपरीत मनमाना आचरण करते हैं:-
प्रमाण गीता अध्याय 16 व 17 में।
विचार करें:-- श्लोक 3.33,
3.34, 3.35 का भाव है कि सर्व प्राणी प्रकृति(माया) के वश ही हैं। स्वभाववश कर्म
करते हैं। ऐसे ही ज्ञानी भी अपनी आदत वश कर्म करते हैं फिर हठ क्या करेगा।
सार: -- शिक्षित व्यक्ति
जो तत्वज्ञानहीन हैं अपनी गलत पूजा को नहीं त्यागते चाहे कितना आग्रह करें, चाहे सद्ग्रन्थों के प्रमाण भी दिखा दिए जाऐं वे नहीं मानते।
कुछ ज्ञानी-विद्वान पुरुष मान वश पैसा प्राप्ति व अधिक शिष्य बनाने की इच्छा से
सच्चाई का अनुसरण नहीं करते। उन तत्वज्ञान हीन सन्तों के अशिक्षित शिष्य व शिक्षित
शिष्य प्रमाण देखकर भी उन अज्ञानी सन्तों को नहीं त्यागते सत्य साधना ग्रहण नहीं
करते वे मूढ़ हैं। दोनों (ज्ञानी व अज्ञानी) स्वभाव वश चल रहे हैं। इसलिए भक्ति
मार्ग गलत दिशा पकड़ चुका है तथा इन दोनों को समझाना व्यर्थ है।
गरीब, चातुर प्राणी चोर हैं, मूढ मुग्ध हैं
ठोठ। संतों के नहीं काम के, इनकूं दे गल जोट।।
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वधर्मे, निधनम्, श्रेयः, परधर्मः,
भयावहः ।।3.35।।
अनुवाद: (विगुणः) गुणरहित
अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर (स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अच्छी प्रकार आचरणमें
लाये हुए (परधर्मात्) दूसरोंकी धार्मिक पूजासे (स्वधर्मः) अपनी शास्त्र विधि अनुसार
पूजा (श्रेयान्) अति उत्तम है जो शास्त्रनुकूल है (स्वधर्मे) अपनी पूजा में तो
(निधनम्) मरना भी (श्रेयः) कल्याणकारक है और (परधर्मः) दूसरेकी पूजा (भयावहः) भयको
देनेवाली है। (3.35)
परित्राणाय, साधूनाम्, विनाशाय, च, दुष्कृताम्,
धर्मसंस्थापनार्थाय, सम्भवामि, युगे, युगे
।।4.8।।
अनुवाद: (साधूनाम्) साधु
पुरुषोंका (परित्राणाय) उद्धार करनेके लिये (दुष्कृताम्) बुरेकर्म करनेवालोंका
(विनाशाय) विनाश करनेके लिये (च) और (धर्मसंस्थापनार्थाय) भक्ति मार्ग को शास्त्र
अनुकूल दिशा देने के लिए (युगे,युगे)
युग-युगमें (सम्भवामि) अपने अंश प्रकट करता हूँ तथा उनमें गुप्त रूप से मैं प्रवेश
करके अपनी लीला करता हूँ। (4.8)
वीतरागभयक्रोधाः, मन्मयाः, माम्, उपाश्रिताः,
बहवः, ज्ञानतपसा, पूताः, मद्भावम्, आगताः ।।4.10।।
अनुवाद: (वितरागभयक्रोधाः)
जिनके राग भय और क्रोध सर्वथा नष्ट हो गये और (मन्मयाः) जो मुझमें अनन्य
प्रेमपूर्वक स्थित रहते हैं ऐसे (माम्) मेरे (उपाश्रिताः) आश्रित रहनेवाले (बहवः) बहुत-से
भक्त उपर्युक्त (ज्ञानतपसा) ज्ञानरूप तपसे (पूताः) पवित्रा होकर (मद्भावम्)
मतावलम्बी अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना करने वाले स्वभाव के (आगताः) हो चुके हैं।
(4.10)
एवम्, ज्ञात्वा, कृतम्, कर्म,
पूर्वैः, अपि, मुमुक्षुभिः,
कुरु, कर्म, एव, तस्मात्,
त्वम्, पूर्वैः, पूर्वतरम्,
कृतम् ।।4.15।।
अनुवाद: (पूर्वैः)
पूर्वकालके (मुमुक्षुभिः) मुमुक्षुओंने (अपि) भी (एवम्) इस प्रकार (ज्ञात्वा) जानकर
ही शास्त्र विधि अनुसार साधना रूपी (कर्म) कर्म (कृतम्) विशेष कसक के साथ किये हैं
(तस्मात्) इसलिये (त्वम्) तू भी (पूर्वैः) पूर्वजोंद्वारा (पूर्वतरम्,कृतम्) सदासे किये जानेवाले शास्त्र विधि अनुसार भक्ति (कर्म)
कर्मोंको (एव) ही (कुरु) कर। (4.15)
किम्, कर्म, किम्, अकर्म,
इति, कवयः, अपि, अत्रा, मोहिताः,
तत्, ते, कर्म, प्रवक्ष्यामि,
यत्, ज्ञात्वा, मोक्ष्यसे,
अशुभात् ।।4.16।।
अनुवाद: (कर्म) कर्म
(किम्) क्या है और (अकर्म) अकर्म (किम्) क्या है? (इति) इसप्रकार (अत्रा) यहाँ निर्णय करनेमें (कवयः) बुद्धिमान् साधक (अपि)
भी (मोहिताः) मोहित हो जाते हैं इसलिये (तत्) वह (कर्म) कर्म-तत्व मैं (ते) तुझे
(प्रवक्ष्यामि) भलीभाँति समझाकर कहूँगा (यत्) जिसे (ज्ञात्वा) जानकर तू (अशुभात्) शास्त्र
विरुद्ध किए जाने वाले दुष्कर्मों से (मोक्ष्यसे) मुक्त हो जायगा। (4.16)
कर्मणः, हि, अपि, बोद्धव्यम्,
बोद्धव्यम्, च, विकर्मणः,
अकर्मणः, च, बोद्धव्यम्, गहना,
कर्मणः, गतिः ।।4.17।।
अनुवाद: (कर्मणः) शास्त्र
विधि अनुसार कर्मका स्वरूप (अपि) भी (बोद्धव्यम्) जानना चाहिये (च) और (अकर्मणः) शास्त्र
विधि रहित अर्थात् अकर्मका स्वरूप भी (बोद्धव्यम्) जानना चाहिए (च) तथा (विकर्मणः)
मास-मदिरा तम्बाखु सेवन तथा चोरी - दुराचार आदि विकर्मका स्वरूप भी (बोद्धव्यम्)
जानना चाहिए (हि) क्योंकि (कर्मणः) कर्मकी (गतिः) गति (गहना) गहन है। (4.17)
भावार्थ:- तत्वज्ञान को
जान कर शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म से होने वाले लाभ से तथा शास्त्र विधि रहित
भक्ति कर्म से तथा मांस, मदिरा, तम्बाखु सेवन
व चोरी, दुराचार करना झूठ बोलना आदि बुरे कर्म से होने वाली
हानि का ज्ञान होना अनिवार्य है। उसके लिए इस अध्याय के मंत्र 34 में विवरण है।
कर्मणि, अकर्म, यः, पश्येत्,
अकर्मणि, च, कर्म,
यः,
सः, बुद्धिमान्, मनुष्येषु, सः, युक्तः, कृत्स्न्नकर्मकृत्
।।4.18।।
अनुवाद: (यः) जो मनुष्य
(कर्मणि) कर्म अर्थात् शास्त्र अनुकूल साधना रूपी करने योग्य कर्म तथा (अकर्म)
अकर्म अर्थात् शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण न करने योग्य कर्म को (पश्येत्)
देखता है अर्थात् जान लेता है (च) और (यः) जो (अकर्मणि) अकर्म अर्थात् वह शास्त्र विरुद्ध
साधना न करने योग्य कर्म को नहीं करता (कर्म) कर्म अर्थात् करने योग्य कर्म को
करता है (सः) वह (मनुष्येषु) मनुष्योंमें (बुद्धिमान्) बुद्धिमान है और (सः) वह
(युक्तः) योगी (कृत्स्न्नकर्मकृत्) समस्त शास्त्र विधि अनुसार ही कर्मोंको
करनेवाला है। (4.18)
यस्य, सर्वे, समारम्भाः, कामसंकल्पवर्जिताः,
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्, तम्, आहुः, पण्डितम्,
बुधाः ।।4.19।।
अनुवाद: (यस्य) जिसके
(सर्वे) सम्पूर्ण (समारम्भाः) शास्त्र अनुकूल कर्म (कामसंकल्प वर्जिताः) बिना
कामना और संकल्पके होते हैं तथा (ज्ञानाग्निदग्ध कर्माणम्) बुरे कर्म अर्थात् शास्त्र
विधि रहित कार्य तत्व ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं अर्थात् पूर्ण
ज्ञान होने पर साधक पूर्ण संत तलाश करके वास्तविक मंत्र प्राप्त कर लेता है, जिससे सर्व पाप विनाश हो जाते हैं (तम्) उसको (बुधाः) शास्त्र
विधि अनुसार साधना करने वाले बुद्धिमान लोग (पण्डितम्) पण्डित (आहुः) कहते हैं। (4.19)
त्यक्त्वा, कर्मफलासंगम्, नित्यतृप्तः, निराश्रयः,
कर्मणि, अभिप्रवृत्तः, अपि, न, एव, किंचित्, करोति, सः ।।4.20।।
अनुवाद: (कर्मफलासंगम्)
तत्वज्ञान के आधार से शास्त्र विधि रहित कर्मोंमें और उनके फलमें आसक्ति का सर्वथा
(त्यक्त्वा) त्याग करके (निराश्रयः) शास्त्र विधि रहित भक्ति के कर्म से रहित हो
गया है और (नित्यतृप्तः) शास्त्र अनुकूल साधना के कर्मों से नित्य तृप्त है (सः)
वह (कर्मणि) संसारिक व शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्मोंमें (अभिप्रवृत्त) भलीभाँति
बरतता हुआ (अपि) भी (एव) वास्तवमें (किंचित्) कुछ भी शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना
आचरण अर्थात् मनमानी पूजा तथा दोषयुक्त कर्म (न) नहीं (करोति) करता। (4.20)
निराशीः, यतचित्तात्मा, त्यक्तसर्वपरिग्रहः,
शारीरम्, केवलम्, कर्म, कुर्वन्,
न, आप्नोति, किल्बिषम् ।।4.21।।
अनुवाद: (यतचित्तात्मा) शास्त्र
विधि अनुसार भक्ति प्राप्त आत्मा (त्यक्तसर्वपरिग्रहः) जिसने समस्त शास्त्र
विरुद्ध संग्रह की हुई साधनाओं का परित्याग कर दिया है ऐसा (निराशीः) अविधिवत् साधना
को फैंका हुआ अर्थात् शास्त्र विधि रहित साधना त्यागा हुआ भक्त (केवलम्) केवल (शारीरम्)
हठ योग न करके शरीर से जो आसानी से होने वाली सहज साधना तथा शरीर सम्बन्धी (कर्म)
संसारिक कर्म तथा शास्त्र विधि अनुसार भक्ति कर्म (कुर्वन्) करता हुआ (किल्बिषम्)
क्योंकि शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा करने वालों को गीता श्लोक
7.12 से 7.15 में राक्षस स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म अर्थात् शास्त्र विधि
त्याग कर मनमाना आचरण करने वाले, मूर्ख मेरी भक्ति भी नहीं
करते, वे केवल तीनों गुणों अर्थात् रजगुण ब्रह्मा जी,
सतगुण विष्णु जी, तमगुण शिव जी की भक्ति करके
उनसे मिलने वाली क्षणिक राहत पर आश्रित
रहते हैं। इन्हीं तीनों गुणों अर्थात् श्री ब्रह्मा जी, श्री
विष्णु जी, श्री शिव जी की साधना शास्त्र विधि रहित कही है
इस शास्त्र विधि रहित साधना को त्याग कर शास्त्रविधि अनुसार भक्ति करता है। वह
पापको (न) नहीं (आप्नोति) प्राप्त होता। यही प्रमाण गीता श्लोक 18.47-18.48 में भी
है। (4.21)
यदृच्छालाभसन्तुष्टः, द्वन्द्वातीतः, विमत्सरः,
समः, सिद्धौ, असिद्धौ, च,
कृत्वा, अपि, न, निबध्यते ।।4.22।।
अनुवाद: (यदृच्छालाभसन्तुष्टः)
जो बिना इच्छाके अपने आप प्राप्त हुए पदार्थमें सदा संतुष्ट रहता है (विमत्सरः)
जिसमें ईष्र्याका सर्वथा अभाव हो गया है (द्वन्द्वातीतः) जो हर्ष-शोक आदि द्वन्द्वोंसे
सर्वथा अतीत हो गया है ऐसा (सिद्धौ) कार्य की सिद्धि (च) और (असिद्धौ) असिद्धिमें (समः)
समान रहने वाला अर्थात् अविचलित (कृत्वा) कार्य करते-करते शास्त्र अनुकूल भक्ति
करता हुआ (अपि) भी उनसे (न) नहीं (निबध्यते) बँधता। क्योंकि पूर्ण संत से पूर्ण मंत्र
जाप प्राप्त करने के उपरान्त निष्काम शास्त्र अनुकूल साधना के शुभ कर्म भक्ति में
सहयोगी होते हैं तथा पाप विनाश हो जाते हैं। जिससे कर्म बन्धन मुक्त हो जाता है। (4.22)
गतसंगस्य, मुक्तस्य, ज्ञानावस्थितचेतसः,
यज्ञाय, आचरतः, कर्म, समग्रम्,
प्रविलीयते ।।4.23।।
अनुवाद: (गतसंगस्य) शास्त्र
विरुद्ध साधना से आस्था हटने के कारण (मुक्तस्य) उस मुक्त हुए साधक का
(ज्ञानावस्थितचेतसः) चित्त निरन्तर परमात्मा के तत्वज्ञानमें स्थित रहता है ऐसे केवल
(यज्ञाय) शास्त्र अनुकूल भक्ति के लिये कर्म (आचरतः) आचरण करनेवाले मनुष्यके
(समग्रम्) सम्पूर्ण (कर्म) कर्म (प्रविलीयते) प्रभु साधना के प्रति विलीन हो जाते
हैं। (4.23)
ब्रह्म, अर्पणम्, ब्रह्म, हविः,
ब्रह्माग्नौ, ब्रह्मणा, हुतम्,
ब्रह्म, एव, तेन, गन्तव्यम्,
ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।4.24।।
अनुवाद: (अर्पणम्) ऐसे शास्त्र
अनुकूल साधक का समर्पण भी (ब्रह्म) ब्रह्म अर्थात् परमात्मा को है और (हविः) हवन
किये जाने योग्य द्रव्य भी (ब्रह्म) प्रभु ही है तथा (ब्रह्मणा) पूर्ण परमात्मा के
निमित्त (ब्रह्माग्नौ) ब्रह्मरूप अग्निमें अर्थात् प्रभु स्तुति से (हुतम्) पापांे
की आहूति हो जाती है अर्थात् पाप विनाश हो जाते हैं (एव) वास्तव में
(ब्रह्मकर्मसमाधिना) सांसारिक कार्य करते हुए भी जिसका ध्यान परमात्मा में ही लीन
रहता है और जो आसानी से शरीर से होने वाले कर्म करता है अर्थात् सहज समाधी में रह
कर साधना करता है (तेन) उसके लिए (ब्रह्म) परमात्मा (गन्तव्यम्) प्राप्त किये जाने
योग्य है अर्थात् वही परमात्मा प्राप्त कर सकता है जो सहज समाधि में रहता है। (4.24)
यज्ञशिष्टामृतभुजः, यान्ति, ब्रह्म, सनातनम्,
न, अयम्, लोकः, अस्ति,
अयज्ञस्य, कुतः, अन्यः,
कुरुसत्तम ।।4.31।।
अनुवाद: (कुरुसत्तम) हे
कुरुक्षेष्ठ अर्जुन! (यज्ञशिष्टामृतभुजः) उपरोक्त शास्त्रविधि रहित साधनाओं से बचे
हुए बुद्धिमान साधक शास्त्र अनुकूल साधना से बचे हुए लाभ को उपभोग करके (सनातनम्
ब्रह्म) आदि पुरुष परमेश्वर अर्थात्-पूर्णब्रह्मको (यान्ति) प्राप्त होते हैं और
(अयज्ञस्य) शास्त्र विधि अनुसार पूर्ण प्रभु की भक्ति न करनेवाले पुरुषके लिये तो
(अयम्) यह (लोकः) मनुष्य-लोक भी सुखदायक (न) नहीं (अस्ति) है फिर (अन्यः) परलोक
(कुतः) कैसे सुखदायक हो सकता है?(4.31)
भावार्थ:- यज्ञ से बचे हुए
अमृत का भोग करने का अभिप्रायः है कि ‘‘पूर्ण परमात्मा की साधना करने वाले साधक अपने शरीर के कमलों को खोलने वाले
मन्त्रों का जाप करते हैं। वे मन्त्र श्री ब्रह्मा जी, श्री
विष्ण जी तथा श्री शिव जी व श्री दुर्गा जी के जाप भी हैं जो संसारिक सुख प्राप्त कराते
हैं। इन के मन्त्रा जाप से उपरोक्त देवी व देवताओं के ऋण से मुक्ति मिलती है जो
मन्त्रा जाप की ऋण उतरने के पश्चात् शेष कमाई है उस शेष जाप की कमाई से पूर्ण
परमात्मा के साधक को अत्यधिक संसारिक लाभ प्राप्त होता है। इस श्लोक 4.31 में यही
कहा है कि पूर्ण परमात्मा का साधक यज्ञ अर्थात् साधना (अनुष्ठान) से बची शेष भक्ति
कमाई का उपयोग करके पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। भावार्थ है कि पूर्ण
परमात्मा के विधिवत् साधक को संसारिक सुख भी अधिक प्राप्त होता है तथा पूर्ण मोक्ष
भी प्राप्त होता है।
विशेष - यही प्रमाण पवित्र
गीता श्लोक 3.13 में वर्णन है तथा श्लोक 16.23-16.24 में भी है कि हे भारत जो साधक
शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण अर्थात् मनमुखी पूजा करते हैं उनको न तो कोई
सुख प्राप्त होता है, न सिद्धि तथा न ही कोई गति प्राप्त होती है
अर्थात् व्यर्थ है। इसलिए शास्त्रों में अर्थात् वेदों में जो भक्ति साधना के कर्म
करने का आदेश है तथा जो न करने का आदेश है वही मानना श्रेयकर है।
एवम्, बहुविधाः, यज्ञाः, वितताः, ब्रह्मणः, मुखे,
कर्मजान्, विद्धि, तान्, सर्वान्,
एवम्, ज्ञात्वा, विमोक्ष्यसे
।।4.32।।
अनुवाद: (एवम्) इस प्रकार
और भी (बहुविधाः) बहुत तरहके शास्त्रअनुसार (यज्ञाः) धार्मिक क्रियाऐं हैं (तान्)
उन (सर्वान्) सबको तू (कर्मजान्) कर्मों के द्वारा होने वाली यज्ञों को (विद्धि)
जान (एवम्) इस प्रकार (ब्रह्मणः) पूर्ण परमात्माके (मुखे) मुख कमल से (वितताः)
पाँचवे वेद अर्थात् स्वसम वेद में विस्तारसे कहे गये हैं। (ज्ञात्वा) जानकर (विमोक्ष्यसे)
पूर्ण मुक्त हो जायगा। (4.32)
श्रेयान्, द्रव्यमयात्, यज्ञात्, ज्ञानयज्ञः, परन्तप,
सर्वम्, कर्म, अखिलम्, पार्थ,
ज्ञाने, परिसमाप्यते ।।4.33।।
अनुवाद: (परन्तप,पार्थ) हे परंतप अर्जुन! (द्रव्यमयात्) द्रव्यमय अर्थात् धन के
द्वारा किये जाने वाले दान, भण्डारे आदि (यज्ञात्) यज्ञ
अर्थात् धार्मिक कर्मों की अपेक्षा (ज्ञानयज्ञः) ज्ञानयज्ञ (श्रेयान्) अत्यन्त
श्रेष्ठ है तथा (सर्वम्) सम्पूर्ण (कर्म)शास्त्र अनुकूल कर्म (अखिलम् ज्ञाने)
सम्पूर्ण ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञानमें (परिसमाप्यते)समाप्त हो जाते हैं। (4.33)
योगसन्नयस्तकर्माणम्, ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्, सञ्छि
धनञ्जय
आत्मवन्तम्, न, कर्माणि, निबध्नन्ति,
धनञ्जय ।। 4.41।।
अनुवाद: (धनञ्जय) हे धनञ्जय!
(योगस न्नयस्तकर्माणम्) जिसने तत्वज्ञान के आधार से शास्त्र विधि रहित भक्ति के
सर्व कर्मों को त्याग कर दिया और (ज्ञानसञ्छिन्नसंशयम्) जिसने तत्वज्ञान द्वारा
समस्त संश्योंका नाश कर दिया है ऐसे (आत्मवन्तम्) पूर्ण परमात्मा के शास्त्र अनुकूल
ज्ञान पर अडिग साधक को (कर्माणि) शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने से पाप
कर्म होते हैं वे शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले को नहीं होते इसलिए पाप
कर्म (न) नहीं (निबध्नन्ति) बाँधते अर्थात् वे पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। (4.41)
तस्मात्, अज्ञानसम्भूतम्, हृत्स्थम्, ज्ञानासिना, आत्मनः,
छित्त्वा, एनम्, संशयम्, योगम्,
आतिष्ठ, उत्तिष्ठ, भारत ।।4.42।।
अनुवाद: (तस्मात्) इसलिये
(भारत) हे भरतवंशी अर्जुन! तू (हृत्स्थम्) हृदयमें स्थित (अज्ञानसम्भूतम्)
अज्ञानजनित (एनम् संशयम्) शास्त्र विधि रहित संश्य रूपी (एनम्) पाप को (ज्ञानासिना)
तत्वज्ञानरूप तलवारद्वारा (छित्त्वा) छेदन करके अर्थात् दूध पानी छान कर
(उत्तिष्ठ) उठ अर्थात् सावधान होकर (आत्मनः) अन्तरात्मा से पूर्ण परमात्मा के
(योगम्) शास्त्र अनुकूल भक्ति में (आतिष्ठ) अडिग हो जा। (4.42)
अर्जुन उवाच
सन्नयासम्, कर्मणाम्, कृष्ण, पुनः, योगम्, च, शंससि,
सन्नयासम्, कर्मणाम्, कृष्ण, पुनः, योगम्, च, शंससि,
यत्, श्रेयः, एतयोः, एकम्,
तत्, मे, ब्रूहि,
सुनिश्चितम् ।।5.1।।
अनुवाद: (कृष्ण) हे कृष्ण!
आप (कर्मणाम्) कर्मोंके (सन्नयासम्) सन्यास अर्थात् कर्म छोड़कर आसन लगाकर कान आदि
बन्द करके साधना करने की (च) और (पुनः) फिर (योगम्) कर्मयोगकी अर्थात् कर्म करते
करते साधना करने की (शंससि) प्रशंसा करते हैं इसलिए (एतयोः) इन दोनोंमेंसे (यत्)
जो (एकम्) एक (मे) मेरे लिए (सुनिश्चितम्) भलीभाँती निश्चित (श्रेयः) कल्याणकारक साधन
हो (तत्) उसको (बू्रहि) कहिये। (5.1)
केवल हिन्दी अनुवाद: हे कृष्ण!
आप कर्मोंके सन्यास अर्थात् कर्म छोड़कर आसन लगाकर कान आदि बन्द करके साधना करने
की और फिर कर्मयोगकी अर्थात् कर्म करते करते साधना करने की प्रशंसा करते हैं इसलिए
इन दोनोंमेंसे जो एक मेरे लिए भलीभाँती निश्चित कल्याणकारक साधन हो उसको कहिये। (5.1)
भावार्थ:- अर्जुन कह रहा
है कि भगवन आप एक ओर तो कह रहे हो कि काम करते करते साधना करना ही श्रेयकर है। फिर
4.25 से 4.30 तक में कह रहे हो कि कोई तप करके कोई प्राणायाम आदि करके कोई नाक कान
बन्द करके, नाद (ध्वनि) सुन करके आदि से आत्मकल्याण
मार्ग मानता है। इसलिए आप की दो तरफ (दोगली) बात से मुझे संशय उत्पन्न हो गया है
कृपया निश्चय करके एक मार्ग मुझे कहिए।
कर्म सन्यास का विवरण:-
कर्म सन्यास दो प्रकार से होता है, एक तो सन्यास वह होता है जिसमें साधक परमात्मा प्राप्ति के लिए प्रेरित
होकर हठ करके जंगल में बैठ जाता है तथा शास्त्र विधि रहित साधना करता है, दूसरा घर पर रहते हुए भी हठयोग करके घण्टों एक स्थान पर बैठ कर शास्त्र
विधि त्याग कर साधना करता है, ये दोनों ही कर्म सन्यासी हैं।
कर्मयोग का विवरण:- यह भी
दो प्रकार का होता है। एक तो बाल-बच्चों सहित सांसारिक कार्य करता हुआ शास्त्र
विधि अनुसार भक्ति साधना करता है या विवाह न करा कर घर पर या किसी आश्रम में रहता
हुआ संसारिक कर्म अर्थात् सेवा करता हुआ शास्त्र विधि अनुसार साधना करता है, ये दोनों ही कर्मयोगी हैं। दूसरी प्रकार के कर्मयोगी वे होते
हैं जो बाल-बच्चों में रहते हैं तथा साधना शास्त्र विधि त्याग कर करते हैं या शादी
न करवाकर घर में रहता है या किसी आश्रम में सेवा करता है, यह
भी कर्म योगी ही कहलाते हैं।
सन्नयासः, कर्मयोगः, च, निःश्रेयसकरौ,
उभौ,
तयोः, तु, कर्मसन्नयासात्, कर्मयोगः, विशिष्यते ।।5.2।।
अनुवाद: तत्वदर्शी संत न
मिलने के कारण वास्तविक भक्ति का ज्ञान न होने से (सन्नयासः) शास्त्र विधि रहित
साधना प्राप्त साधक प्रभु प्राप्ति से विशेष प्रेरित होकर गृहत्याग कर वन में चला जाना
या कर्म त्याग कर एक स्थान पर बैठ कर कान नाक आदि बंद करके या तप आदि करना (च) तथा
(कर्मयोगः) शास्त्र विधि रहित साधना कर्म करते-करते भी करना (उभौ) दोनों ही व्यर्थ
है अर्थात् श्रेयकर नहीं हैं तथा न करने वाली है शास्त्रविधी अनुसार साधना करने
वाले जो सन्यास लेकर आश्रम में रहते हैं तथा कर्म सन्यास नहीं लेते तथा जो विवाह
करा कर घर पर रहते हैं उन दोनों की साधना ही (निश्रेयसकरौ) अमंगलकारी नहीं हैं
(तु) परन्तु (तयोः) उपरोक्त उन दोनोंमें भी (कर्मसन्नयासात्) यदि आश्रम रह कर भी
काम चोर है उस कर्मसंन्याससे (कर्मयोगः) कर्मयोग संसारिक कर्म करते-करते शास्त्र
अनुसार साधना करना (विशिष्यते) श्रेष्ठ है। (5.2)
भावार्थ: उपरोक्त मंत्र
नं. 5.2 का भावार्थ है कि जो शास्त्र विरुद्ध साधक हैं वे दो प्रकार के हैं, एक तो कर्म सन्यासी, दूसरे कर्म योगी।
उन की दोनों प्रकार की साधना जो तत्वदर्शी सन्त के अभाव से शास्त्रविरूद्ध होने से
श्रेयकर अर्थात् कल्याण कारक नहीं है तथा दोनों प्रकार की शास्त्रविरूद्ध साधना न
करने वाली है। जैसे गीता श्लोक 16.23 में कहा है कि शास्त्र
विधि को त्यागकर मनमाना आचरण अर्थात् पूजा व्यर्थ है। श्लोक 16.24 में कहा है कि भक्ति मार्ग की जो साधना करने वाली है तथा न करने वाली
उसके लिए शास्त्रों को ही प्रमाण मानना चाहिए। शास्त्रों (गीता व वेदों) में कहा
है कि पूर्ण मोक्ष के लिए किसी तत्वदर्शी सन्त की खोज करो। उसी से विनम्रता से
भक्ति मार्ग प्राप्त करें। प्रमाण गीता श्लोक 4.34, यजुर्वेद
अध्याय 40 मन्त्र 10 व 13 में इन दोनों में कर्मसन्यासी से कर्मयोगी अच्छा है,
क्योंकि कर्मयोगी जो शास्त्र विधि रहित साधना करता है, उसे जब कोई तत्वदर्शी संत का सत्संग प्राप्त हो जायेगा तो वह तुरन्त अपनी शास्त्र
विरुद्ध पूजा को त्याग कर शास्त्र अनुकूल साधना पर लग कर आत्म कल्याण करा लेता है।
परन्तु कर्म सन्यासी दोनों ही प्रकार के हठ योगी घर पर रहते हुए भी, जो कान-आंखें बन्द करके एक स्थान पर बैठ कर हठयोग करने वाले तथा घर त्याग
कर उपरोक्त हठ योग करने वाले तत्वदर्शी संत के ज्ञान को मानवश स्वीकार नहीं करते,
क्योंकि उन्हें अपने त्याग तथा हठयोग से प्राप्त सिद्धियों का
अभिमान हो जाता है तथा गृह त्याग का भी अभिमान सत्यभक्ति प्राप्ति में बाधक होता
है। इसलिए शास्त्रविधि रहित कर्मसन्यासी से शास्त्र विरुद्ध कर्मयोगी साधक ही
अच्छा है। यही प्रमाण गीता श्लोक 18.41 से 18.46 में कहा है कि चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्री,
वैश्य तथा शुद्र) के व्यक्ति भी अपने स्वभाविक कर्म करते हुए परम
सिद्धी अर्थात् पूर्ण मोक्ष को प्राप्त हो जाते हैं। परम सिद्धी के विषय में
स्पष्ट किया है श्लोक 18.46 में कि जिस परमात्मा परमेश्वर से
सर्व प्राणियों की उत्पति हुई है जिस से यह समस्त संसार व्याप्त है, उस परमेश्वर कि अपने-2 स्वभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम
सिद्धी को प्राप्त हो जाता हैं अर्थात् कर्म करता हुआ सत्य साधक पूर्ण मोक्ष
प्राप्त करता है। श्लोक 18.47 में स्पष्ट किया है कि शास्त्र
विरूद्ध साधना करने वाले (कर्म सन्यास) से अपना शास्त्र विधी अनुसार (कर्म करते
हुए) साधना करने वाला श्रेष्ठ है। क्योंकि अपने कर्म करता हुआ साधक पाप को प्राप्त
नहीं होता। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि कर्म सन्यास करके हठ करना पाप है। श्लोक 18.48 में स्पष्ट किया है कि अपने स्वाभाविक कर्मों को नहीं त्यागना चाहिए
चाहे उसमें कुछ पाप भी नजर आता है। जैसे खेती करने में जीव मरते हैं आदि-2।
विशेष:- गीता श्लोक 2.39 से 2.53 तक तथा श्लोक 3.3 में दो प्रकार
की साधना बताई है। उनके विषय में कहा है कि मेरे द्वारा बताई साधना तो मेरा मत है।
जो दोनों ही अमंगल कारी तथा न करने वाली है। पूर्ण ज्ञान जो मोक्षदायक है किसी
तत्वदर्शी सन्त से जान गीता श्लोक 4.33-4.34 में प्रमाण है। यही प्रमाण गीता श्लोक 6.46 में
है कहा है शास्त्र विरूद्ध साधना करने वाले कर्मयोगी से शास्त्रविद् योगी श्रेष्ठ
है।
ज्ञेयः, सः, नित्यसन्नयासी, यः, न, द्वेष्टि, न, काङ्क्षति,
निद्र्वन्द्वः, हि, महाबाहो, सुखम्,
बन्धात्, प्रमुच्यते ।।5.3।।
अनुवाद: (महाबाहो) हे
अर्जुन! (यः) जो साधक (न) न किसीसे (द्वेष्टि) द्वेष करता है और (न) न किसीकी
(काङ्क्षति) आकांक्षा करता है, (सः) वह
तत्वदर्शी (नित्यसन्नयासी) सन्यासी ही है क्योंकि राग द्वेष युक्त व्यक्ति का मन
भटकता है तथा इन से रहित साधक का मन काम करते करते भी केवल प्रभु के भजन व गुणगान
में लगा रहता है इसलिए वह सदा सन्यासी ही है (हि) क्योंकि वही व्यक्ति (बन्धात्)
बन्धन से मुक्त होकर (सुखम्) पूर्ण मुक्ति रूपी सुख के (ज्ञेयः) जानने योग्य ज्ञान
को (निद्र्वन्द्धः) ढोल के डंके से अर्थात् पूर्ण निश्चय के साथ भिन्न-भिन्न
(प्रमुच्यते) स्वतन्त्रा होकर सही व्याख्या करता है। (5.3)
भावार्थ:- इस मंत्र नं. 3
में शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले कर्मयोगी का विवरण है कि जो श्रद्धालु
भक्त चाहे बाल-बच्चों सहित है या रहित है या किसी आश्रम में रहकर सतगुरु व संगत की
सेवा में रत हैं। वह सर्वथा राग-द्वेष रहित होता है। वास्तव में वही सन्यासी है, वही फिर अन्य शास्त्र विरुद्ध साधकों को पूर्ण निश्चय के साथ
सत्य साधना का ज्ञान स्वतन्त्रा होकर बताता है।
साङ्ख्ययोगौ, पृथक्, बालाः, प्रवदन्ति,
न, पण्डिताः,
एकम्, अपि, आस्थितः, सम्यक्,
उभयोः, विन्दते, फलम् ।।5.4।।
अनुवाद: (साङ्ख्ययोगौ)
तत्वज्ञान के आधार से गृहस्थी व ब्रह्मचारी रहकर जो एक ही प्रकार की साधना करते
हैं उन दोनों को (प्रथक्) प्रथक.2 फल प्राप्त होता है एैसा(बालाः) नादान (प्रवदन्ति)
कहते हैं। वे (पण्डिताः) पण्डित (अपि) भी (न) नहीं हैं (एकम्) एक सर्व शक्तिमान परमेश्वर
पर (सम्यक् आस्थितः) सम्यक् प्रकार से स्थित पुरुष (उभयोः) दोनों (फलम्)समान फलरूप
को (विन्दते) तत्वज्ञान आधार से ही प्राप्त करते हैं गीता श्लोक 13.24-13.25 में विस्तृत वर्णन है। (5.4)
भावार्थ है कि जो अपनी
अटकलों को लगा कर कोई कहते हैं कि शास्त्र विधि अनुसार साधना करने वाले जिन्होंने
शादी नहीं करवाई है अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर घर पर या आश्रम आदि में साधना करने
वाले कर्म योगी श्रेष्ठ हैं। कोई कहते हैं कि शादी करवाकर बाल बच्चों में रहकर कर्म
करते करते साधना करना श्रेष्ठ है, वे दोनों
ही नादान हैं, क्योंकि वास्तविक ज्ञान अर्थात् तत्वज्ञान तो
तत्वदर्शी संत ही सही भिन्न-भिन्न बताएगा कि शास्त्रविधि अनुसार साधना से दोनों को
समान फल प्राप्त होता है। तत्वदर्शी सन्त का गीता मंत्र 4.34
में वर्णन है तथा तत्वदर्शी संत की पहचान गीता मंत्र 15.1 से
15.4 में यजुर्वेद अध्याय 40 मंत्र 10 व 13 में भी कहा है कि
पूर्ण परमात्मा के विद्यान को तत्वदर्शी सन्त ही बताता है उस से सुनों।
यत्, साङ्ख्यैः, प्राप्यते, स्थानम्, तत्, योगैः, अपि, गम्यते,
एकम्, साङ्ख्यम्, च, योगम्,
च, यः, पश्यति, सः, पश्यति ।।5.5।।
अनुवाद: शास्त्र विधि
अनुसार साधना करने से (साङ्ख्यैः) तत्वज्ञानियों द्वारा (यत्) जो (स्थानम्) स्थान
अर्थात् सत्यलोक (प्राप्यते) प्राप्त किया जाता है (योगैः) तत्वदर्शीयों से उपदेश प्राप्त
करके साधारण गृहस्थी व्यक्तियों अर्थात् कर्मयोगियोंद्वारा (अपि) भी (तत्) वही
(गम्यते) सत्यलोक स्थान प्राप्त किया जाता है (च) और इसलिए (यः) जो पुरुष
(साङ्ख्यम्) ज्ञानयोग (च) और (योगम्) कर्मयोगको फलरूपमें (एकम्) एक (पश्यति) देखता
है (सः) वही यथार्थ (पश्यति) देखता है अर्थात् वह वास्तव में भक्ति मार्ग जानता है
(5.5)
विशेष:- उपरोक्त मंत्र 5.4-5.5
का भावार्थ है कि कोई तो कहता है कि जिसको ज्ञान हो गया है वही शादी नहीं करवाता
तथा आजीवन ब्रह्मचारी रहता है वही पार हो सकता है। वह चाहे घर रहे, चाहे किसी आश्रम में रहे। कारण वह व्यक्ति कुछ ज्ञान प्राप्त
करके अन्य जिज्ञासुओं को अच्छी प्रकार उदाहरण देकर समझाने लग जाता है। तो भोली
आत्माऐं समझती हैं कि यह तो बहुत बड़ा ज्ञानी हो गया है। यह तो पार है, हमारा गृहस्थियों का नम्बर कहाँ है। कुछ एक कहते हैं कि बाल-बच्चों में
रहता हुआ ही कल्याण को प्राप्त होता है। कारण गृहस्थ व्यक्ति दान-धर्म करता है,
इसलिए श्रेष्ठ है। इसलिए कहा है कि वे तो दोनों प्रकार के विचार
व्यक्त करने वाले बच्चे हैं, उन्हें विद्वान मत समझो।
वास्तविक ज्ञान तो पूर्ण संत जो तत्वदर्शी है, वही बताता है
कि शास्त्र विधि अनुसार साधना गुरु मर्यादा में रहकर करने वाले उपरोक्त दोनों ही
प्रकार के साधक एक जैसी ही प्राप्ति करते हैं। जो साधक इस व्याख्या को समझ जाएगा
वह किसी की बातों में आकर विचलित नहीं होता। ब्रह्मचारी रहकर साधना करने वाला भक्त
जो अन्य को ज्ञान बताता है, फिर उसकी कोई प्रशंसा कर रहा है
कि बड़ा ज्ञानी है, परन्तु तत्व ज्ञान से परिचित जानता है कि
ज्ञान तो सतगुरु का बताया हुआ है, ज्ञान से नहीं, नाम जाप व गुरु मर्यादा में रहने से मुक्ति होगी। इसी प्रकार जो गृहस्थी
है वह भी जानता है कि यह भक्त जी भले ही चार मंत्र व वाणी सीखे हुए है तथा अन्य
इसके व्यर्थ प्रशंसक बने हैं, ये दोनों ही नादान हैं। मुक्ति
तो नाम जाप व गुरु मर्यादा में रहने से होगी, नहीं तो दोनों
ही पाप के भागी व भक्तिहीन हो जायेंगे। ऐसा जो समझ चुका है वह चाहे ब्रह्मचारी है
या गृहस्थी दोनों ही वास्तविकता को जानते हैं। उसी वास्तविक ज्ञान को जान कर साधना
करने वाले साधक के विषय में निम्न मंत्रों का वर्णन किया है।
सन्नयासः, तु, महाबाहो, दुःखम्,
आप्तुम्, अयोगतः,
योगयुक्तः, मुनिः, ब्रह्म, नचिरेण,
अधिगच्छति ।।5.6।।
अनुवाद: (महाबाहो) हे
अर्जुन! (तु) इसके विपरित (सन्नयास) कर्म सन्यास से तो (अयोगतः) शास्त्र विधि रहित
साधना होने के कारण (दुःखम्) दुःख ही (आप्तुम्) प्राप्त होता है तथा (योगयुक्तः) शास्त्र
अनुकूल साधना प्राप्त (मुनिः) साधक (ब्रह्म) प्रभु को (नचिरेण) अविलम्ब ही (अधिगच्छति)
प्राप्त हो जाता है। (5.6)
ब्रह्मणि, आधाय, कर्माणि, संगम्,
त्यक्त्वा, करोति, यः,
लिप्यते, न, सः, पापेन,
पद्मपत्राम्, इव, अम्भसा
।।5.10।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष
(कर्माणि) सब कर्मोंको (ब्रह्मणि) पूर्ण परमात्मामें (आधाय) अर्पण करके और (संगम्)
आसक्तिको (त्यक्त्वा) त्यागकर शास्त्र विधि अनुसार कर्म (करोति) करता है (सः) वह
साधक (अम्भसा) जलसे (पद्मपत्राम्) कमलके पत्ते की (इव) भाँति (पापेन) पापसे (न, लिप्यते) लिप्त नहीं होता अर्थात् पूर्ण परमात्मा की भक्ति से
साधक सर्व बन्धनों से मुक्त हो जाता है जो पाप कर्म के कारण बन्धन बनता है। (5.10)
युक्तः, कर्मफलम्, त्यक्त्वा, शान्तिम्, आप्नोति, नैष्ठिकीम्,
अयुक्तः, कामकारेण, फले, सक्तः,
निबध्यते ।।5.12।।
अनुवाद: (युक्तः) शास्त्रनुकूल
सत्य साधना में लगा भक्त (कर्मफलम्) कर्मोंके फलका (त्यक्त्वा) त्याग करके
(नैष्ठिकीम्) स्थाई अर्थात् परम (शान्तिम्) शान्तिको (आप्नोति) प्राप्त होता है और
(अयुक्तः) शास्त्र विधि रहित साधना करने वाला अर्थात् असाध (कामकारेण) मनो कामना की
पूर्ति के लिए (फले) फलमें (सक्तः) आसक्त होकर (निबध्यते) पाप कर्म के कारण बँधता
है। (5.12)
सर्वकर्माणि, मनसा, सन्नयस्य, आस्ते,
सुखम्, वशी,
नवद्वारे, पुरे, देही, न,
एव, कुर्वन्, न, कारयन् ।।5.13।।
अनुवाद: (मनसा) मन को
तत्वज्ञान के आधार से (वशी) काल लोक के लाभ से हटा कर दृढ़ इच्छा से (सर्व
कर्माणि) सम्पूर्ण शास्त्र अनुकूल धार्मिक कर्मों अर्थात् सत्य साधना से (सन्नयस्य)
संचित कर्म के आधार से अर्थात् सन्चय की हुई सत्य भक्ति कमाई के आधार से (सुखम्)
वास्तविक आनन्द में अर्थात् पूर्णमोक्ष रूपी परम शान्ति युक्त सत्यलोक में (आस्ते)
स्थित होकर निवास करता है (एव) इस प्रकार फिर (देही) शरीरी अर्थात् परमात्मा के
साथ अभेद रूप में जीवात्मा (नवद्वारे) पंच भौतिक नौ द्वारों वाले शरीर रूप (पुरे)
किले में (न कुर्वन्) न तो कर्म करता हुआ (न कारयन्) न ही कर्म करवाता हुआ अर्थात्
पूर्ण मोक्ष प्राप्त करके सत्यलोक में ही सुख पूर्वक रहता है। (5.13)
न, आदत्ते, कस्यचित्, पापम्, न, च, एव, सुकृतम्, विभुः,
अज्ञानेन, आवृतम्, ज्ञानम्, तेन,
मुह्यन्ति, जन्तवः ।।5.15।।
अनुवाद: (विभुः) पूर्ण
परमात्मा (न) न (कस्यचित्) किसीके (पापम्) पाप का (च) और (न) न किसीके (सुकृतम्)
शुभकर्मका (एव) ही (आदत्ते) प्रति फल देता है अर्थात् निर्धारित किए नियम अनुसार
फल देता है किंतु (अज्ञानेन) अज्ञानके द्वारा (ज्ञानम्) ज्ञान (आवृतम्) ढका हुआ है
(तेन) उसीसे (जन्तवः) तत्वज्ञान हीनता के कारण जानवरों तुल्य सब अज्ञानी मनुष्य
(मुह्यन्ति) मोहित हो रहे हैं अर्थात् स्वभाववश शास्त्र विधि रहित भक्ति कर्म व
सांसारिक कर्म करके क्षणिक सुखों में आसक्त हो रहे हैं। जो साधक शास्त्र विधि
अनुसार भक्ति कर्म करते हैं उनके पाप को प्रभु क्षमा कर देता है अन्यथा संस्कार ही
वर्तता है अर्थात् प्राप्त करता है। (5.15)
भावार्थ:- श्लोक 5.14-5.15
में तत्व ज्ञानहीनत व्यक्तियों को जन्तवः अर्थात् जानवरों तुल्य कहा है क्योंकि
तत्वज्ञान के बिना पूर्ण मोक्ष नहीं हो सकता पूर्ण मोक्ष बिना परम शान्ति नहीं हो
सकती इसलिए कहा है कि पूर्ण परमात्मा ने जब सतलोक में सृष्टि रची थी उस समय किसी
को कोई कर्म आधार बना कर उत्पत्ति नहीं की थी। सत्यलोक में सुन्दर शरीर दिया था जो
कभी विनाश नहीं होता। परन्तु प्रभु ने कर्म फल का विद्यान अवश्य बनाया था। इसलिए
सर्व प्राणी अपने स्वभाववश कर्म करके सुख व दुःख के भोगी होते हैं। जैसे हम सर्व
आत्माऐं सत्यलोक में पूर्ण ब्रह्म परमात्मा(सतपुरुष) द्वारा अपने मध्य से शब्द
शक्ति से उत्पन्न किए। वहाँ सत्यलोक में हमें कोई कर्म नहीं करना था तथा सर्व सुख
उपलब्ध थे। हम स्वयं अपने स्वभाव वश होकर ज्योति निरंजन (ब्रह्म-काल) पर आसक्त हो
कर अपने सुखदाई प्रभु से विमुख हो गए। उसी का परिणाम यह निकला कि अब हम कर्म बन्धन
में स्वयं ही बन्ध गए। अब जैसे कर्म करते हैं, उसी का फल निर्धारित नियमानुसार ही प्राप्त कर रहे हैं। जो साधक शास्त्र
अनुकूल साधना करता है उसके पाप को पूर्ण परमात्मा क्षमा करता है अन्यथा संस्कार ही
वर्तता है अर्थात् संस्कार ही प्राप्त करता है।
नीचे के मंत्र 5.16 से 5.28
तक शास्त्र अनुकूल भक्ति कर्म तथा मर्यादा में रहकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त कर
सकते हैं तथा पूर्ण प्रभु पाप क्षमा कर देता है। इसलिए कर्तव्य कर्म अर्थात् करने
योग्य भक्ति व संसारिक कर्म करता हुआ ही पूर्ण मुक्त होता है।
ज्ञानेन, तु, तत्, अज्ञानम्,
येषाम्, नाशितम्, आत्मनः,
तेषाम्, आदित्यवत्, ज्ञानम्, प्रकाशयति, तत्परम् ।।5.16।।
अनुवाद: (तु) दूसरी ओर
(येषाम्) जिनका (अज्ञानम्) अज्ञान (आत्मनः) पूर्ण परमात्मा जो आत्मा का अभेद साथी
है इसलिए आत्मा कहा जाता है उस पूर्ण परमात्मा के (तत् ज्ञानेन) तत्वज्ञान से
(नाशितम्) नष्ट हो गया है (तेषाम्) उनका वह (ज्ञानम्) तत्वज्ञान (तत्परम्) उस
पूर्ण परमात्मा को (आदित्यवत्) सूर्य के सदृश (प्रकाशयति) प्रकाश कर देता है
अर्थात् अज्ञान रूपी अंधेरा हटा देता है। (5.16)
तद्बुद्धयः, तदात्मानः, तन्निष्ठाः, तत्परायणाः,
गच्छन्ति, अपुनरावृत्तिम्, ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः ।।5.17।।
अनुवाद: (तदात्मानः) वह
तत्वज्ञान युक्त जीवात्मा (तद्बुद्धयः) उस पूर्ण परमात्मा के तत्व ज्ञान पर पूर्ण
रूप से लगी बुद्धि से (तन्निष्ठाः) सर्वव्यापक परमात्मामें ही निरन्तर एकीभावसे
स्थित है ऐसे (तत्परायणाः) उस परमात्मा पर आश्रित (ज्ञाननि र्धूतकल्मषाः)
तत्वज्ञानके आधार पर शास्त्र विधि रहित साधना करना भी पाप है तथा उससे पुण्य के
स्थान पर पाप ही लगता है इसलिए सत्य भक्ति करके पापरहित होकर (अपुनरावृत्त्सिम्)
जन्म-मरण से मुक्त होकर संसार में पुर्न लौटकर न आने वाली गति अर्थात् पूर्ण मुक्ति
को (गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं। (5.17)
विद्याविनयसम्पन्ने, ब्राह्मणे, गवि, हस्तिनि,
शुनि, च, एव, श्वपाके,
च, पण्डिताः, समदर्शिनः ।।5.18।।
अनुवाद:
(विद्याविनयसम्पन्ने) गुप्त तत्वज्ञान से परिपूर्ण अर्थात् पूर्ण तत्वज्ञानी साधक (ब्राह्मणे)
ब्राह्मण में (गवि) गाय में (हस्तिनि) हाथी में (च) तथा (शुनि) कुत्ते (च) और
(श्वपाके) चाण्डालमें (समदर्शिनः) एक समान समझता है अर्थात् एक ही भाव रखता है
वास्तव में इन लक्षणों से युक्त हैं (पण्डिताः) ज्ञानीजन अर्थात् तत्वज्ञानी (एव)
ही है। (5.18)
इह, एव, तैः, जितः,
सर्गः, येषाम्, साम्ये,
स्थितम्, मनः,
निर्दोषम्, हि, समम्, ब्रह्म,
तस्मात्, ब्रह्मणि, ते,
स्थिताः ।।5.19।।
अनुवाद: (एव) वास्तव में
(येषाम्) जिनका (मनः) मन (साम्ये) समभावमें (स्थितम्) स्थित है (तैः) उनके द्वारा
(इह) इस जीवित अवस्थामें (सर्गः) सम्पूर्ण संसार (जितः) जीत लिया गया है अर्थात्
वे मनजीत हो गए हैं (हि) निसंदेह वह (निर्दोषम्) पाप रहित साधक (ब्रह्म) परमात्मा (समम्)
सम है अर्थात् निर्दोंष आत्मा हो गई हैं (तस्मात्) इससे (ते) वे (ब्रह्मणि) पूर्ण
परमात्मामें ही (स्थिताः) स्थित हैं। पाप रहित आत्मा तथा परमात्मा के बहुत से गुण
समान है जैसे अविनाशी, राग, द्वेष रहित,
जन्म मृत्यु रहित, स्वप्रकाशित भले ही शक्ति
में बहुत अन्तर है। (5.19)
न, प्रहृष्येत्, प्रियम्, प्राप्य, न, उद्विजेत्,
प्राप्य, च, अप्रियम्,
स्थिरबुद्धिः, असम्मूढः, ब्रह्मवित्, ब्रह्मणि, स्थितः ।।5.20।।
अनुवाद: (प्रियम्) प्रियको
(प्राप्य) प्राप्त होकर (न प्रहृष्येत्) हर्षित नहीं हो (च) और (अप्रियम्)
अप्रियको (प्राप्य) प्राप्त होकर (न उद्विजेत्) उद्विगन्न न हो वह (स्थिरबुद्धि)
स्थिरबुद्धि (असम्मूढः) संश्यरहित (ब्रह्मवित्) परमात्म तत्व को पूर्ण रूप से जानने
वाले (ब्रह्मणि) पूर्ण परमात्मामें एकीभावसे नित्य (स्थितः) स्थित है। (5.20)
बाह्यस्पर्शेषु, असक्तात्मा, विन्दति, आत्मनि, यत्, सुखम्,
सः, ब्रह्मयोगयुक्तात्मा, सुखम्, अक्षयम्, अश्नुते।।5.21।।
अनुवाद: (बाह्यस्पर्शेषु)
बाहरके विषयोंमें (असक्तात्मा) आसक्तिरहित साधक को (आत्मनि) अपने आप में (यत्) जो
सुमरण (सुखम्) आनन्द(विन्दति) प्राप्त होता है (सः) वह (ब्रह्मयोगयुक्तात्मा) परमात्माके
अभ्यास योगमें अभिन्नभावसे स्थित भक्त आत्मा (अक्षयम्) कभी समाप्त न होने वाले (सुखम्)
आनन्दका (अश्नुते) अनुभव करता है। अर्थात् पूर्ण मोक्ष प्राप्त करते हैं। (5.21)
ये, हि, संस्पर्शजाः, भोगाः,
दुःखयोनयः, एव, ते,
आद्यन्तवन्तः, कौन्तेय, न, तेषु,
रमते, बुधः ।।5.22।।
अनुवाद: (एव) वास्तव में
(ये) जो ये इन्द्रिय तथा (संस्पर्शजाः) विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले (भोगाः)
सब भोग हैं (ते) वे (हि) निश्चय ही (दुःखयोनयः) कष्ट दायक योनियों के ही हेतु हैं
और (आद्यन्तवन्तः) आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं। (कौन्तेय) हे अर्जुन! (बुधः)
बुद्धिमान् विवेकी पुरुष (तेषु) उनमें (न) नहीं (रमते) रमता। (5.22)
शक्नोति, इह, एव, यः,
सोढुम्, प्राक्, शरीरविमोक्षणात्,
कामक्रोधोद्भ्वम्, वेगम्, सः, युक्तः,
सः, सुखी, नरः ।।5.23।।
अनुवाद: (यः) जो साधक (इह)
इस मनुष्य शरीरमें (शरीरविमोक्षणात्) शरीरका नाश होनेसे (प्राक्) पहले-पहले (एव)
ही (कामक्रोधोद्भ्वम्) काम-क्रोधसे उत्पन्न होनेवाले (वेगम्) वेगको (सोढुम्) सहन
करनेमें (शक्नोति) समर्थ हो जाता है (सः) वही (नरः) व्यक्ति (युक्तः)प्रभु में लीन
भक्त है और (सः)वही (सुखी)सुखी है। (5.23)
यः, अन्तःसुखः, अन्तरारामः, तथा, अन्तज्र्योतिः, एव,
यः,
सः, योगी, ब्रह्मनिर्वाणम्, ब्रह्मभूतः, अधिगच्छति ।।5.24।।
अनुवाद: (यः) जो पुरुष
(एव) निश्चय करके (अन्तःसुखः) अन्तःकरण में ही सुखवाला है (अन्तरारामः) पूर्ण
परमात्मा जो अन्तर्यामी रूप में आत्मा के साथ है उसी अन्तर्यामी परमात्मा में ही रमण
करनेवाला है (तथा) तथा (यः) जो (अन्तज्र्योतिः) अन्तः करण प्रकाश वाला अर्थात्
सत्य भक्ति शास्त्र ज्ञान अनुसार करता हुआ मार्ग से भ्रष्ट नहीं होता (सः) वह
(ब्रह्मभूतः) परमात्मा जैसे गुणों युक्त (योगी) भक्त (ब्रह्मनिर्वाणम्) शान्त
ब्रह्म अर्थात् पूर्ण परमात्माको (अधिगच्छति) प्राप्त होता है। (5.24)
लभन्ते, ब्रह्मनिर्वाणम्, ऋषयः, क्षीणकल्मषाः,
छिन्नद्वैधाः, यतात्मानः, सर्वभूतहिते, रताः ।।5.25।।
अनुवाद: (क्षीणकल्मषाः) शास्त्र
विधि अनुसार साधना करने से जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, (छिन्नद्वैधाः) जिनके सब संश्य निवृत्त हो गये हैं अर्थात् जो
पथ भ्रष्ट नहीं हैं (सर्वभूतहिते) जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें (रताः) रत हैं
और (यतात्मानः) परमात्मा के प्रयत्न अर्थात् साधना से स्थित हैं वे (ऋषयः) साधु
पुरुष (ब्रह्मनिर्वाणम्) शान्त ब्रह्म को अर्थात् पूर्ण परमात्मा को (लभन्ते) प्राप्त
होते हैं। (5.25)
कामक्रोधवियुक्तानाम्, यतीनाम्, यतचेतसाम्,
अभितः, ब्रह्मनिर्वाणम्, वर्तते, विदितात्मनाम् ।।5.26।।
अनुवाद:
(कामक्रोधवियुक्तानाम्) काम-क्रोधसे रहित (यतचेतसाम्) प्रभु भक्ति में प्रयत्न शील
(विदितात्मनाम्) परमात्माका साक्षात्कार किये हुए (यतीनाम्) परमात्मा आश्रित
पुरुषोंके लिये (अभितः) सब ओरसे (ब्रह्मनिर्वाणम्) शान्त ब्रह्म को अर्थात्
पूर्णब्रह्म परमात्मा को ही (वर्तते) व्यवहार में लाते हैं अर्थात् केवल एक पूर्ण
प्रभु की ही पूजा करते हैं। (5.26)
विशेष - गीता श्लोक 5.27 व 5.28 में विवरण है कि जो साधक पूर्ण संत अर्थात् तत्वदर्शी संत से उपदेश प्राप्त
कर लेता है फिर स्वांस-उस्वांस से सामान्य रूप से सुमरण करता है वही विकार रहित
होकर पूर्ण परमात्मा को प्राप्त करके अनादि मोक्ष प्राप्त करता है।
स्पर्शान्, कृत्वा, बहिः, बाह्यान्,
चक्षुः, च, एव, अन्तरे, भ्रुवोः,
प्राणापानौ, समौ, कृत्वा, नासाभ्यन्तरचारिणौ
।।5.27।।
यतेन्द्रियमनोबुद्धिः, मुनिः, मोक्षपरायणः,
विगतेच्छाभयक्रोधः, यः, सदा, मुक्तः,
एव, सः ।।5.28।।
अनुवाद: (एव) वास्तव में
(बाह्यान्) बाहरके (स्पर्शान्) विषयभोगोंको (बहिः) बाहर (कृत्वा) निकालकर (च) और
(चक्षुः) नेत्रोंकी दृष्टिको (भु्रवोः) भृकुटीके (अन्तरे) बीचमें स्थित करके तथा (नासाभ्यन्तरचारिणौ)
नासिकामें चलने(प्राणापानौ) प्राण और अपानवायु अर्थात् स्वांस-उस्वांस को (समौ) सम
(कृत्वा) करके सत्यनाम सुमरण करता है (यतेन्द्रियमनोबुद्धिः) जिसने इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि जीती हुई हैं, अर्थात् जो
नाम स्मरण पर ध्यान लगाता है मन को भ्रमित नहीं होने देता ऐसा (यः) जो
(मोक्षपरायणः) मोक्षपरायण मोक्ष के लिए प्रयत्न शील (मुनिः) मननशील साधक (विगतेच्छाभयक्रोधः)
इच्छा, भय और क्रोध से रहित हो गया है, (एव) वास्तव में (सः) वह (सदा) सदा (मुक्तः) मुक्त है। (5.27-5.28)
विशेष:- गीता 5.29 में
गीता बोलने वाला ब्रह्म काल कह रहा है कि जो नादान मुझे ही सर्व का मालिक व सर्व
सुखदाई दयालु प्रभु मान कर मेरी ही साधना पर आश्रित हैं, वे पूर्ण परमात्मा को प्राप्त होने से मिलने वाली शान्ति से
वंचित रह जाते हैं अर्थात् उनका पूर्ण मोक्ष नहीं होता। उनकी शान्ति समाप्त हो
जाती है तथा नाना प्रकार के कष्ट उठाते रहते हैं।
भोक्तारम्, यज्ञतपसाम्, सर्वलोकमहेश्वरम्,
सुहृदम्, सर्वभूतानाम्, ज्ञात्वा, माम्, शान्तिम्, ऋच्छति ।।5.29।।
अनुवाद: (माम्) मुझको
(यज्ञतपसाम्) सब यज्ञ और तपोंका (भोक्तारम्) भोगनेवाला (सर्वलोकमहेश्वरम्)
सम्पूर्ण लोकोंके ईश्वरोंका भी ईश्वर तथा (सर्वभूतानाम्) सम्पूर्ण प्राणियोंका (सुहृदम्)
स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी, ऐसा
(ज्ञात्वा) जानकर मेरे पर ही आश्रित रहने मुझ से मिलने वाली अस्थाई, अश्रेष्ठ (शान्तिम्) शान्ति को (ऋच्छति) प्राप्त होते हैं जिस कारण से
उनकी परम शान्ति पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती है अर्थात् शान्ति की क्षमता समाप्त
हो जाती है, पूर्ण मोक्ष से वंचित रह जाते हैं इसलिए मेरा
साधक भी महादुःखी रहता है, इसी का प्रमाण गीता श्लोक 2.66 में है कि
शान्ति रहित मनुष्य को सुख कैसा तथा श्लोक 7.18 में तथा गीता श्लोक 6.15 में भी
स्पष्ट प्रमाण है, इसीलिए गीता श्लोक 15.16-15.17 में कहा है
कि वास्तव में उत्तम पुरूष अर्थात् पूर्ण मोक्ष दायक परमात्मा तो कोई अन्य है
इसलिए श्लोक 18.62, 18.64, 18.66 में कहा है कि अर्जुन सर्वभाव से उस परमात्मा की
शरण में जा, जिसकी कृप्या से ही तू परम शान्ति तथा सनातन परम
धाम अर्थात् सत्यलोक को प्राप्त होगा। (5.29)
विशेष: क्योंकि
काल(ब्रह्म) भगवान तीन लोक के (ब्रह्मा-विष्णु-महेश) भगवानों तथा 21 ब्रह्मण्ड के
लोकों का मालिक है। इसलिए ईश्वरों का भी ईश्वर है। इसलिए महेश्वर कहा है तथा जो भी
साधक यज्ञ या अन्य साधना(तप) करके जो सुविधा प्राप्त करता है उसका भोक्ता(खाने वाला)
काल ही है। जैसे राजा बन कर आनन्द करना, नाना प्रकार के विकार करना। इन सब का आनन्द स्वयं काल भगवान मन रूप से
प्राप्त करता है तथा फिर तप्त शिला पर गर्म करके उससे वासना युक्त पदार्थ निकाल कर
खाता है। अज्ञानतावश नादान प्राणी इसी काल भगवान को दयालु व प्रेमी जान कर प्रसन्न
है। जैसे कसाई के बकरे अपने मालिक(कसाई) को देखते हैं कि वह चारा डालता है,
पानी पिलाता है, गर्मी-सर्दी से बचाता है।
इसलिए उसे दयालु तथा प्रेमी समझते हैं परंतुवास्तव में वह कसाई उनका काल है। सबको
काटेगा, मारेगा तथा स्वार्थ सिद्ध करेगा। ऐसे ही काल भगवान
दयालु दिखाई देता है परंतु सर्व प्राणियों को खाता है। इसलिए कहा है कि जो मुझ काल
को ही सर्वसवा मानकर साधनारत है। उनकी शान्ति समाप्त हो जाती है अर्थात् महाकष्ट
को प्राप्त होते हैं। गीता श्लोक 11.32 में गीता ज्ञान दाता प्रभु स्वयं कह रहा है
कि मैं काल हूँ। सर्व को खाने के लिए आया हूँ। इसलिए इस श्लोक 5.29 का भावार्थ है
कि काल को प्राप्त हो कर प्राणी को शान्ति कहाँ। इसलिए स्थान.2 पर गीता जी में कहा
है पूर्ण शान्ति के लिए पूर्ण परमात्मा शान्त ब्रह्म की शरण में जा।
पूर्वाभ्यासेन, तेन, एव, ह्रियते,
हि, अवशः, अपि, सः,
जिज्ञासुः, अपि, योगस्य, शब्दब्रह्म,
अतिवर्तते ।।6.44।।
अनुवाद: (सः) वह पथभ्रष्ट
साधक (अवशः) स्वभाव वश विवश हुआ (अपि) भी (तेन) उस (पूर्वाभ्यासेन) पहलेके
अभ्याससे (एव) ही वास्तव में (ह्रियते) आकर्षित किया जाता है (हि) क्योंकि (योगस्य)परमात्मा
की भक्ति का (जिज्ञासुः) जिज्ञासु (अपि) भी (शब्दब्रह्म) परमात्मा की भक्ति विधि
जो सद्ग्रन्थों में वर्णित है उस विधि अनुसार साधना न करके पूर्व के स्वभाव वश
विचलित होकर उस वास्तविक नाम का जाप न करके प्रभु की वाणी रूपी आदेश का
(अतिवर्तते) उल्लंघन कर जाता है। क्योंकि पूर्व स्वभाववश फिर विचलित हो जाता है।
इसीलिए गीता श्लोक 7.16-7.17 में जिज्ञासु को अच्छा नहीं कहा है केवल ज्ञानी भक्त
जो एक परमात्मा की भक्ति करता है वह श्रेष्ठ कहा है। गीता श्लोक 18.58 में
भी प्रमाण है। (6.44)
प्रयत्नात्, यतमानः, तु, योगी,
संशुद्धकिल्बिषः,
अनेकजन्मसंसिद्धः, ततः, याति, पराम्,
गतिम् ।।6.45।।
अनुवाद: (तु) इसके विपरीत
(यतमानः) शास्त्र अनुकुल साधक जिसे पूर्ण प्रभु का आश्रय प्राप्त है वह संयमी
अर्थात् मन वश किया हुआ प्रयत्नशील(प्रयत्नात्) सत्यभक्ति के प्रयत्न से (अनेकजन्मसंसिद्धः)
अनेक जन्मों की भक्ति की कमाई से (योगी) भक्त (संशुद्धकिल्बिषः) पाप रहित होकर
(ततः) तत्काल उसी जन्म में (पराम् गतिम्) श्रेष्ठ मुक्ति को (याति) प्राप्त हो
जाता है। (6.45)
तपस्विभ्यः, अधिकः, योगी, ज्ञानिभ्यः,
अपि, मतः, अधिकः,
कर्मिभ्यः, च, अधिकः, योगी,
तस्मात्, योगी, भव,
अर्जुन।।6.46।।
अनुवाद: भगवान कह रहा है
कि (योगी) तत्वदर्शी संत से ज्ञान प्राप्त करके साधना करने वाला नाम साधक मेरे
द्वारा दिया (मतः) अटकल लगाया साधना का मत अर्थात् पूजा विधि के ज्ञान अनुसार जो
श्लोक 6.10 से 6.15 तक में हठ योग का विवरण दिया है उनमें जो हठ करके भक्ति कर्म
से जो साधना करते हैं उन (तपस्विभ्यः) तपस्वियों से (ज्ञानिभ्यः) गीता श्लोक 7.16-7.17
में वर्णित ज्ञानियों से (च) तथा (कर्मिभ्य) कर्म करने वाले से अर्थात् शास्त्रविरूद्ध
साधना करने वालों से (अपि) भी (अधिकः) श्रेष्ठ है। (तस्मात्) इसलिए (अर्जुन) हे
अर्जुन गीता श्लोक 4.34 में कहे तत्वदर्शी संत की खोज करके उस से उपदेश प्राप्त
करके (योगी) शास्त्र अनुकूल भक्त (भव) हो। गीता श्लोक 2.39 से 2.53 तक में
कहा है कि हे अर्जुन! जिस समय तेरा मन भाँति-भाँति के ज्ञान वचनों से हट कर एक
तत्वज्ञान पर स्थित हो जाएगा तब तो तू योग को प्राप्त होगा अर्थात् योगी बनेगा। (6.46)
योगिनाम्, अपि, सर्वेषाम्, मद्गतेन,
अन्तरात्मना,
श्रद्धावान्, भजते, यः, माम्,
सः, मे, युक्ततमः,
मतः ।।6.47।।
अनुवाद: (सर्वेषाम्) सर्व
(योगिनाम्) योगियों में (अपि) भी (यः) जो (श्रद्धावान) श्रद्धावान साधक (मत्गतेन)
मेरे द्वारा दिए भक्ति मत अनुसार (अन्तरात्माना) अन्तरात्मा से (माम्) मुझको (भजते)
भजता है (सः) वह योगी (मे) मेरे (मतः) मत अनुसार (युक्ततमः) यथार्थ विधि से भक्ति
में लीन है। (6.47)
भावार्थ:- तत्वज्ञान
प्राप्त साधक वास्तव में शास्त्रअनुकूल साधक अर्थात् योगी है। वह ब्रह्म काल का ओम्
(ऊँ) नाम का जाप विधिवत् करता है ओम् (ऊँ)
नाम का जाप विधिवत् करना है मेरे नाम की जाप कमाई ब्रह्म को त्याग देता है तथा फिर
पूर्ण परमात्मा को प्राप्त हो जाता है।
बलम्, बलवताम्, च, अहम्,
कामरागविवर्जितम्,
धर्माविरुद्धः, भूतेषु, कामः अस्मि, भरतर्षभ ।।7.11।।
अनुवाद: (भरतर्षभ) हे
भरतश्रेष्ठ! (अहम्) मैं (बलवताम्) बलवानोंका (कामरागविवर्जितम्) आसक्ति और
कामनाओंसे रहित (बलम्) सामर्थ्य हूँ (च) और (भूतेषु) मेरे अन्तर्गत सर्व प्राणियों
में (धर्माविरुद्धः) धर्म के अनुकूल अर्थात् शास्त्र के अनुकूल (कामः) कर्म
(अस्मि) है। (7.11)
देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्, शौचम्, आर्जवम्,
ब्रह्मचर्यम्, अहिंसा, च, शारीरम्, तपः, उच्यते ।।17.14।।
अनुवाद:
(देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्) दैवी वृति वाले व्यक्ति अर्थात संत, ब्राह्मण, गुरु और ज्ञानीजनोंका
आदर (शौचम्) पवित्राता (आर्जवम्) आधीनी (ब्रह्मचर्यम्) ब्रह्मचर्य (च) और (अहिंसा)
अहिंसा यह (शारीरम्) शरीरसम्बन्धी (तपः) तप (उच्यते) कहा जाता है। परन्तु सर्व
शास्त्र विधि रहित है जिस कारण से व्यर्थ साधना है। क्योंकि गीता श्लोक 16.23-16.24 में
शास्त्र विधि त्याग कर मनमाना आचरण करने को व्यर्थ बताया है। (17.14)
श्रेयान्, स्वधर्मः, विगुणः, परधर्मात्, स्वनुष्ठितात्,
स्वभावनियतम्, कर्म, कुर्वन्, न,
आप्नोति, किल्बिषम् ।।18.47।।
अनुवाद: (विगुणः) गुण रहित
(स्वनुष्ठितात्) स्वयं मनमाना अर्थात् शास्त्र विधि रहित अच्छी प्रकार आचरण किए
हुए (परधर्मात्) दूसरेके धर्म अर्थात् धार्मिक पूजा से (स्वधर्मः) अपना धर्म अर्थात्
शास्त्र विधि अनुसार धार्मिक पूजा (श्रेयान्) श्रेष्ठ है (स्वभावनियतम्) अपने वर्ण
के स्वभाविक अर्थात् जो भी जिस क्षत्राी, वैश्य,
ब्राह्मण व शुद्र वर्ण में उत्पन्न है (कर्म) कर्म तथा
भक्ति कर्म (कुर्वन्) करता हुआ (किल्बिषम्) पापको (न आप्नोति) प्राप्त नहीं होता।
(18.47)
स्वधर्मम् भय
करने योग्य नहीं
स्वधर्मम्, अपि, च, अवेक्ष्य,
न, विकम्पितुम्, अर्हसि,
धम्र्यात्, हि, युद्धात्, श्रेयः,
अन्यत्, क्षत्रियस्य, न,
विद्यते ।।2.31।।
अनुवाद: (च) तथा
(स्वधर्मम्) अपनी शास्त्र अनुकूल धार्मिक पूजाओं को (अवेक्ष्य) देखकर (अपि) भी तू (विकम्पितुम्)
भय करने (न,अर्हसि) योग्य नहीं है (हि) क्योंकि
(क्षत्रियस्य) क्षत्रियके लिये (धम्र्यात्) धर्मयुक्त (युद्धात्) युद्धसे बढ़कर
(अन्यत्) दूसरा कोई (श्रेयः) कल्याणकारी कर्तव्य (न) नहीं (विद्यते) जाना जाता है।
(2.31)
विशेष:- क्षत्रिय आदि धर्म भी केवल शरीर सम्बन्धी है आत्मा सम्बन्धी कुछ भी नही। अतः क्षत्रिय आदि धर्म पालन शास्त्र अनुकूल कर्तव्यकर्म नही माना जा सकता। अतः त्याज्य है। अपनी शास्त्र अनुकूल पूजा भय करने योग्य नहीं है
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