प्रासंगिकता

वास्तव में कबीर को मानव ने केवल समाज सुधारक के रूप में माना। कबीर ने सदियों पहले वह विशिष्ट ज्ञान मानव मात्र के परम कल्याण हेतु दिया परन्तु इस ज्ञान को लेने वाले पात्र बहुत कम हैं। यह ज्ञान परंपरा से बिल्कुल अलग अनूठा आसान है सन्सारिक दुखों से, जरा मृत्यु, काल जाल से सदा सदा के लिये मुक्ति में पूर्णतया सक्षम है।  

दुनिया अजब दिवानी, मोरी कही एक न मानी।।टेक।।
तजि प्रत्यक्ष सतगुरु परमेश्वर, इत उत फिरत भुलानी।।
तीरथ मूरति पूजत डोले, कंकर पत्थर पानी।।1।।
विषय वासनाके फन्दे परि, मोहजाल उरझानी।।
सुखको दुख दुखको सुख माने, हित अनहित नहिं जानी।।2।।
औरनको मूरख ठहरावत, आप बनत है सयानी।।
साँच कहौं तौ मारन धावे, झूठेको पतियानी।।3।।
तीन गुणों की करत उपासना, भ्रमित फिरें अज्ञानी।
गीता कहे इन्हें मत पूजो, पूर्ण ब्रह्म पिछानी।।4।।
ब्रह्म उपासत ऋषि मुनि, भ्रमत चारों खानी।।
कहैं कबीर कहां लग बरणों , अद्धभुत खेल बखानी।।5।।

कबीर साहेब कहते हैं:--

कबीर सीख उसी को दीजिए, जाको सीख सुहाय।
        सीख  दयी थी वानरा, बइयाँ का घर जाय।।

अर्थात् वे उल्टे गले पड़ जाएंगे। मरने मारने को तैयार हो जाएंगे। जैसे साहेब कबीर के पीछे काशी के पाण्डे व काजी मुल्ला पड़ गए थे लेकिन सच्चाई स्वीकार नहीं की। जो ज्ञानी पुरुष है जो समझते भी हैं कि हम गलत साधना स्वयं कर रहे हैं तथा अनुयाईयों को भी गलत मार्ग दर्शन कर रहे हैं वे अपनी मान बड़ाई वश नहीं मानते। वे चातुर (चतुर) प्राणी कहे हैं। इसलिए दोनों ही भक्ति अधिकारी नहीं हैं।

अंधों की बस्ती में रोशनी बेचते कबीर वाकई अपने आने वाले समय की अमिट वाणी थे। कबीर का जन्म इतिहास के उन पलों की घटना है जब सत्य चूक गया था और लोगों को असत्य पर चलना आसान मालूम पड़ता था। अस्तित्व, अनास्तित्व से घिरा था। 

बाजीगर  का  बाँदरा,  ऐसा जीउ मन के साथ।
नाना  नाच नचाय के,  राखे      अपने     हाथ।। 

मृत प्राय मानव जाति एक नए अवतार की बाट जोह रही थी। ऐसे में कबीर की वाणी ने प्रस्फुटित होकर सदियों की पीड़ा को स्वर दे दिए। अपनी कथनी और करनी से मृत प्राय मानव जाति के लिए कबीर ने संजीवनी का कार्य किया।

नाना  रंग   तरंग   है, मन   मकरंद     असूझ।
कहै  कबीर  पुकार के, तैं अकिल कला ले बूझ।।

इतिहास गवाह है, आदमी को ठोंक-पीट कर आदमी बनाने की घटना कबीर के काल में, कबीर के ही हाथों हुई। शायद तभी कबीर कवि मात्र ना होकर युगपुरुष कहलाए। 'मसि-कागद' छुए बगैर ही वह सब कह गए जो कृष्ण ने कहा, नानक ने कहा, जीसस ने कहा और मोहम्मद ने कहा। मजे की बात, अपने साक्ष्यों के प्रसार हेतु कबीर सारी उम्र किसी शास्त्र या पुराण के मोहताज नहीं रहे। न तो किसी शास्त्र विशेष पर उनका भरोसा रहा और ना ही जीवन भर स्वयं को किसी शास्त्र में बाँधा। 


कबीर ऐसा विवेकी व्यक्तित्व है जो भारत को छुआछूतजातिवादधार्मिक आडंबरों और ब्राह्मणवादी संस्कृति के घातक तत्त्वों से उबारने वाला है`कबीर जुलाहा परिवार से हैं कबीर ने स्वयं लिखा है कि ‘कहत कबीर कोरी यह कोरी-कोली समाज कपड़ा बनाने का कार्य करता रहा है स्पष्ट है कि कबीर उस कोरी परिवार (मेघवंश) में जुड़े थे जो छुआछूत आधारित ग़रीबी से पीड़ित था जुलाहों के वंशज स्वाभाविक ही कबीर के साथ जुड़े हैं और कई कबीरपंथी कहलाना पसंद करते हैं

आज के भारत में देखें तो कई भारतीयों को कबीर से कोई परहेज़ नहीं हाँब्राह्मणवादी व्यवस्था के दृढ लोग कबीर का मूल साहित्य पढ़ कर उलझन में पड़ जाते हैं 

कबीर का सादा जीवन:-
कबीर भारत के महानतम व्यक्तित्व हैं वे संतमत के प्रवर्तक और सुरत-शब्द योग के सिद्ध हैं वे तत्त्वज्ञानी हैं एक ही चेतन तत्त्व को मानते हैं और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी हैं अवतारमूर्त्तिरोज़ाईदमस्जिदमंदिर आदि को वे महत्व नहीं देते हैं भारत में धर्मभाषा या संस्कृति की चर्चा कबीर की चर्चा के बिना अधूरी होती है

उनका परिवार हिंदु ब्राह्मणों की आपसी फूट के कारण हुए अत्याचारों में फंसकर मुस्लिम बना था। आजीविका चलाने की दृष्टि से वस्त्र बुनने का जुलाहे का कार्य अपनाया हुआ था।  कबीर को नूर अली और नीमा नामक दंपति ने लहरतारा के पास सन् 1398 में कमल के पुष्प पर शिशु रूप में पृकट पाया थानीमा ने कबीर को अपने पुत्र के रूप में अपनाया था नीमा द्वारा बहुत अच्छे वात्सल्य पूर्ण वातावरण में उनका पालन-पोषण हुआउनकी मुहँबोली दो संताने कमाल (पुत्र) और कमाली (पुत्री) हुईं कमाली की गणना भारतीय महिला संतों में होती है


ना  मेरा  जन्म  न  गर्भ  बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे  ने  पाया।।

कबीर स्वयंसिद्ध ज्ञानी पुरूष थे जिनका ज्ञान समाज की परिस्थितियों में सहज ही उच्च स्वरूप ग्रहण कर गया वे किसी भी धर्मसम्प्रदाय और रूढ़ियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते हैं मुस्लिम समाज में रहते हुए भी जातिगत भेदभाव ने उनका पीछा नहीं छोड़ा इसी लिए उन्होंने हिंदू-मुसलमान सभी में व्याप्त जातिवाद के अज्ञानरूढ़िवाद तथा कट्टरपंथ का खुलकर विरोध किया कबीर ने जातिवाद के विरुद्ध कोई जन-आंदोलन खड़ा नहीं किया लेकिन उसकी भूमिका तैयार कर दी वे आध्यात्मिकता से भरे और जुझारू सामाजिक-धार्मिक कुरीतियों के घोर विरोधी हैं

कबीर भारत के सभी निवासियों का प्रतिनिधित्व करते हैं ब्राह्मणवादियों और पंडितों के विरुद्ध कबीर ने खरी-खरी कही जिससे चिढ़ कर उन्होंने कबीर की वाणी का कई जगह रूप बिगाड़ दिया है और कबीर की भाषा के साथ भी बहुत खिलवाड़ किया है आज निर्णय करना कठिन है कि कबीर की शुद्ध वाणी कितनी बची है तथापि उनकी बहुत सी मूल वाणी को विभिन्न कबीरपंथी संगठनों ने प्रकाशित किया है और बचाया है कबीर की साखीरमैनीबीजकबावन-अक्षरीउलटबासी देखी जा सकती है साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने भक्तों-फकीरों का सत्संग किया और उनकी अच्छी बातों को हृदयंगम किया 

कबीर ने सारी आयु कपड़ा बनाने का कार्य परिश्रम से करके परिवार का पालन पोषण किया और कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलानें और सीमित संसाधनों में सम्मान सहित जीवन यापन करने का सन्देश दिया। सन् 1518 में कबीर ने देह सहित इस भूलोक से सतलोक गमन किया 
उनके ये दो शब्द उनकी विचारधारा और दर्शन को पर्याप्त रूप से इंगित करते हैं:-

(1)
आवे न जावे मरे नहीं जनमेसोई निज पीव हमारा हो
न प्रथम जननी ने जनमोन कोई सिरजनहारा हो
साध न सिद्ध मुनी न तपसीन कोई करत आचारा हो
न खट दर्शन चार बरन मेंन आश्रम व्यवहारा हो
न त्रिदेवा सोहं शक्तिनिराकार से पारा हो
शब्द अतीत अटल अविनाशीक्षर अक्षर से न्यारा हो
ज्योति स्वरूप निरंजन नाहींना ओम् हुंकारा हो
धरनी न गगन पवन न पानीन रवि चंदा तारा हो
है प्रगट पर दीसत नाहींसत्गुरु सैन सहारा हो
कहे कबीर सर्ब ही साहबपरखो परखनहारा हो

(2)
मोको कहाँ ढूँढे रे बंदेमैं तो तेरे पास में
न तीरथ मेंन मूरत मेंन एकांत निवास में
न मंदिर मेंन मस्जिद मेंन काशी कैलाश में
न मैं जप मेंन मैं तप मेंन मैं बरत उपास में
न मैं किरिया करम में रहतानहीं योग संन्यास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊँएक पल की तलाश में
कहे कबीर सुनो भई साधोमैं तो हूँ विश्वास में

कबीर की गहरी जड़ें
कबीर को सदियों साहित्य से दूर रखा गया ताकि उनका कहा सच लोगों विशेषकर युवाओं तक न पहुँचे लोग यह वास्तविकता न जान लें कि कबीर की पृष्ठभूमि में धर्म की एक समृद्ध परंपरा थी जो हिंदू, विशेषकर ब्राह्मणवादी, परंपरा से अलग थी वास्तव में भारत के सनातन धर्म में मानवीय दृष्टिकोण रचा-बसा है यह आधुनिक शोध से प्रमाणित हो चुका है उसी धर्म की व्यापकता का ही प्रभाव है कि कबीर अपनी इस्लाम की पृष्ठभूमि के बावजूद भारत के मूलनिवासियों के हृदय में बसते चले गएकबीर ने ऐसी धर्म सिंचित वैचारिक क्रांति को जन्म दिया कि शिक्षा पर एकाधिकार रखने वाले तत्कालीन भयभीत पंडितों ने उन्हें साहित्य से दूर रखने में सारी शक्ति लगा दी 

कबीर का विशेष कार्य - निर्वाण
निर्वाण शब्द का अर्थ है - 'मन के स्वरूप को समझ कर उसे छोड़ देना और मन पर पड़े संस्कारों और उनसे बनते विचारों को माया जान कर उन्हें महत्व न देना' दूसरे शब्दों में दुनियावी दुखों का मूल कारण ‘संस्कार’ जिससे मुक्ति का नाम निर्वाण है इन संस्कारों में कर्म आधारित पुनर्जन्म का एक सिद्धांत भी है काल माया के सूक्ष्म जाल ने पापों और कुकर्मों को नकली कर्म आधारित पुनर्जन्म के सिद्धांत से ढँक दिया गया ताकि उनके कुकर्मों की ओर कोई उँगली न उठे तथा लोग अपने पिछले जन्म और कर्मों को ही कोसते रहें और काल माया व्यवस्था चलती रहे वास्तविकता यह है कि कबीर मत के अनुसार ‘निर्वाण’ का मतलब है- ‘कर्म’ और ‘पुनर्जन्म’ के विचार से छुटकारा ये विचार अत्याचार और ग़ुलामी के विरुद्ध संघर्ष में बाधक रहे हैं

कबीर का आवागमन से निकलने की  बात करना यही प्रमाणित करता है कि पुनर्जन्म के विचार से मुक्ति संभव है और उसी में भलाई है भारत का सनातन तत्त्वज्ञान दर्शन (चेतन तत्त्व सहित अन्य तत्त्वों की जानकारी) कहता है कि जो भी है अभी है और इसी क्षण में है इस दृष्टि से कबीर ऐसे ज्ञानवान पुरुष हैं जिन्होंने काल माया के सूक्ष्म जाल को काट डाला वे चतुर ज्ञानी और विवेकी पुरुष हैंसदाचारी हैं और सद्गुणों से पूर्ण हैंकबीर से काल माया के सूक्ष्म जाल मुक्ति ही कल्याण का मार्ग है

कबीर ने सामाजिकधार्मिक तथा मानसिक ग़ुलामी की ज़जीरों को काटा और मानव समुदाय की एकता और स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया 

सतगुरु सो सतनाम सुनावे। और गुरु कोइ काम न आवे।।
तीरथ सोई जो मोछै पापा। मित्रा सोई जो हरै संतापा।।1।।
जोगी सो जो काया सोधे। बुद्धि सोई जो नाहि विरोधे।।
पण्डित सोई जो आगम जानै। भक्त सोई जो भय नहिं आनै।।2।।
दातै जो औगुन परहरई। ज्ञानी सोइ जीवता मरई।।
मुक्ता सोई सतनाम अराधे। श्रोता सोई जो सुरतिहिं साधै।।3।।
सेवक सोई गहै विश्वासा। निसिदिन राखै संतन आसा।।
सतगुरु का लोपै नहि बाचा। कहै कबीर सो सेवक सांचा।।4।।

कबीर जी स्वयं परमेश्वर परमात्मा आए थे। इसलिए कहा है कि मैं पूर्ण परमात्मा स्वयं सतगुरू भेष में कह रहा हूँ मेरी एक नहीं मानता अन्य भ्रमित करने वालों की बातें मान कर इधर-उधर भटकते रहते हैं। पूर्ण सतगुरू का मार्ग ग्रहण करने से मोक्ष सम्भव है परमात्मा कबीर जी का संकेत है कि जब भी पूर्ण सन्त सतगुरू प्रकट होता है उसके द्वारा बताए मार्ग पर लग कर मोक्ष प्राप्त करना ही बुद्धिमता है।



।।कबीर पंथी शब्दावली।।

स्वासा सुमिरण होत है, ताहि न लागै बार।
पल पल बन्दगी साधना, देखो दृष्टि पसार।।
सत्य नामको खोजिले, जाते अग्नि बुझाय।
बिना सतनाम बांचे नहीं, धरमराय धरि खाय।।
कबिरा सुमिरण सार है, और सकल जंजाल।
आदि अंत मध सोधिया, दूजा देखा काल।।
नाम लिया जिन सब लिया, सकल वेदका भेद।
बिना सतनाम नरके पड़ा, पढता चारु वेद।।
राम नाम निज औषधी, सतगुरु दई बताय।
औषध खाय रु पथ रहै, ताको वेदन जाय।।
आदि नाम निज सार है, बूझि लेहु हो हंस।
जिन जाना निज नामको, अमर भयो स्यों बंस।।
आदि नाम निज मूल है, और मंत्रा सब डार।
कहै कबीर निज नाम बिन, बूडि मुआ संसार।।
आदि नामको खोजहू, जो है मुक्ति को मूल।
ये जियरा जप लीजियो, भर्म मता मत भूल।।
कहै कबीर निज नाम बिन, मिथ्या जन्म गवांय।
निर्भय मुक्ति निःअक्षरा, गुरु विन कबहुँ न पाय।।
जो जन होवे जौहरी, सो धन ले बिलगाय।
सोहं सोहं जपि मुये, मिथ्या जन्म गँवाय।।
सबको नाम सुनावहू, जो आवे तूव पास।
शब्द हमारो सत्य है, दृढ राखो विश्वास।।
होय विवेकी शब्दका, जाय मिलै परिवार।
नाम गहै सो पहुँचिहैं, मानहु कहा हमार।।
आदि नाम पारस अहै, मन है मैला लोह।
परसतही कंचन भया, छूटा बंधन मोह।।
सुरति समावे नामसे, जगसे रहै उदास।
कहै कबीर गुरु चरणमें, दृढ राखै विश्वास।।
ज्ञान दीप प्रकाश करि, भीतर भवन जराय।
बैठे सुमरे पुरुषको, सहज समाधि लगाय।।
अछय बृक्षकी डोर गहि, सो सतनाम समाय।
सत्य शब्द प्रमाण है, सत्यलोक कहँ जाय।।
कोइ न यम सो बाचिया, नाम बिना धरिखाय।
जे जन बिरही नामके, ताको देखि डराय।।
कर्म करै देही धरै, औ फिरि फिरि पछताय।
बिना नाम बांचे नहीं , जिव यमरा लै जाय।।

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