(कबीर)
अवधु अविगत
से चल आया, कोई मेरा भेद मर्म नहीं पाया।।
ना मेरा
जन्म न गर्भ बसेरा, बालक ह्नै दिखलाया।
काशी नगर
जल कमल पर डेरा, तहाँ जुलाहे ने पाया।।
माता-पिता
मेरे कछु नहीं, ना मेरे घर दासी।
जुलहा को
सुत आन कहाया, जगत करे मेरी हांसी।।
पांच तत्व
का धड़ नहीं मेरा, जानूं ज्ञान अपारा।
सत्य
स्वरूपी नाम साहिब का, सो है नाम हमारा।।
अधर दीप
(सतलोक) गगन गुफा में, तहां निज वस्तु
सारा।
ज्योति
स्वरूपी अलख निरंजन (ब्रह्म) भी, धरता ध्यान
हमारा।।
हाड चाम
लोहू नहीं मोरे, जाने सत्यनाम उपासी।
तारन तरन
अभै पद दाता, मैं हूं कबीर अविनासी।।
(गरीब) हम सुल्तानी नानक
तारे, दादू कूं उपदेश दिया ।
जात जुलाहा भेद नही
पाया, काशी माहे कबीर हुआ ।।
कबीर बेद हमारा भेद है, मैं मिलु बेदों से नांही।
जौन बेद से मैं मिलूं, वो बेद जानते नांही।।
(कबीर) गहु मम शब्द तो उतरो पारा। बिन सत शब्द लहै यम द्वारा।।
कबीर, अक्षर पुरूष एक पेड़ है, निरंजन वाकी डार।
तीनों देवा शाखा हैं, पात रूप संसार।।